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श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनेमिच
न्द्रीया मुखबोधाख्या लघुवृतिः ।
द्वात्रिंशं प्रमादस्थानाख्यमध्ययनम् ।
प्रमादस्य स्थानानि ।
॥३५८॥
रसाणुयासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसह णेगरूवे। ' चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ट गुरू किलिडे॥६६॥ रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥६७॥ रसे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि। अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ६८॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे य।। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचती से ॥६९॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाइयंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥७०॥ रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि?।।। तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निवत्तए जस्स कए न दुक्खं ॥७१॥ एमेव रसम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पउट्ठचित्तो य चिणाति कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥७२॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । नं लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥७३॥
॥३५८॥