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उत्तराध्ययन ॥३८९॥
षट्त्रिंशमध्ययनम्. गा १०८ ११६
मूलम्-दुविहा तेउ जीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पजत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ १०८ ॥ बायरा जे उ पजत्ता, णेगहा ते पकित्तिआ। अंगारे मुम्मुरे अगणी, अच्ची जाला तहेव य ॥१०९॥
व्याख्या-अत्राङ्गारो धूमज्वालाहीनो दखमानेन्धनात्मको भाखरखरूपः, मुर्मुरो भस्ममिश्राग्निकणरूपः, अग्निरुक्तभेदातिरिक्तो वह्निः, अर्चिमूलप्रतिबद्धाग्निशिखा, ज्वाला छिन्नमूला सैव ॥ १०८॥ १०९॥ मूलम्-उक्का विजुअ बोधवा, णेगहा एवमाइओ। एगविहमनाणत्ता, सुहुमा ते विआहिआ।११०॥ __ व्याख्या--अत्रोल्का विद्युच्च नभसि समुत्पन्नोऽग्निः ॥११॥ मूलम्-सुहुमा सबलोगम्मि, लोगदेसे अ बायरा। एत्तो कालविभागं तु, तेसिंवोच्छं चउविहं ॥१११॥
संतई पप्पऽणाईआ, अपजवसिआवि अ। ठिई पडुच्च साईआ, सपजवसिआवि अ ॥११२॥ तिण्णेव अहोरत्ता, उक्कोसेण विआहिआ। आउठिई तेऊणं, अंतोमुहुत्तं जहनिआ ॥११३॥ असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहन्नगा। कायठिई तेऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥११४॥ अणंतकालमक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नगं । विजढंमि सए काए, तेऊजीवाण अंतरं ॥११५॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो॥११६॥
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