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________________ 卐 z भूमिका ॥ श्रीनवतत्त्वसुमङ्गलाटीकाया <卐 ॥४॥ महानुभाव तीर्थंकर भगवंतो ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मोनो क्षय थवा साथे केवलज्ञाननी प्राप्तिपूर्वक देवनिर्मित समवसरणमां विराजमान थइ योजनगामिनी सुधास्यन्दिनी नयगर्भित देशना आपे छे ते अवसरे अनेकलब्धिसम्पन्न त्रिपदी उपर ज श्रीगणधरभगवंतो विनम्रभावे परमात्माने अंजलिसाथे प्रश्न करे छे के 'भगवन् ! किं तत्त्वम् ?' उत्तरमा सर्वतत्वोनो आधार। त्रिकाळज्ञानी परमात्मा जणावे छे के;-'उपन्नेइ वा पुनः गणधर महर्षि प्रश्न करे छे–'भगवन् ! किं तत्त्वम् ?' उत्तरमा सर्वज्ञ भगवान फरमावे छे-'विगमेइ-बा' एटलाथी संतुष्ट न थतां गणधरमहाराजा पुनः प्रश्न करे छे के 'भगवन् ! किं तत्त्वम् ?' उत्तरमा लोकालोकावलोकी तीर्थकरपरमात्मा कहे छे के;-'धुवेइ वा । त्रण वखत पुछायेला प्रभोना प्रत्युत्तरमा महानुभाव तीर्थकरपरमात्माना मुखारविंदमांथी उपलब्ध थयेल 'उपन्नेइ वा १ विगमेइ वा २ धुवेइ वा ३' ए त्रिपदी सर्वश्रुतर्नु बीज छे, बीजबुद्धिसम्पन्न महानुभाव गणधरमहर्पिओए त्रिपदीस्वरूप शाश्वत बीजने पामी अर्थथी अनादिअनन्त अने सूत्रथी सादिसान्त द्वादशाशीनी अन्तर्मुहूर्त्तमां रचना करे छे. पट्टपरम्परामां थयेल सुविहिगीतार्थमहर्षिओ ए ज द्वादशाङ्गीना अवलम्बनथी तत्त्वज्ञानथी भरपूर विविधग्रंथोनी रचना करी जैनशासननी लोकोत्तर ज्ञानसंबन्धी प्रभावना करवा समर्थ थया छ । तत्त्वज्ञानपरिपूर्ण जैनसिद्धान्त द्रव्यानुयोग-गणितानुयोग-चरणकरणानुयोग अने धर्मकथानुयोग ए चार विभागोमां विभक्त थयेलो छ। द्रव्यानुयोगमां-मुख्यत्त्वे षड्द्रव्यर्नु प्रतिपादन होय छे, गणितानुयोग-जीवाविद्रव्योनी संख्या, चार अनुयोग। परस्पर अल्पबहुत्त्व, कायस्थिति, भवस्थिति, संवेधादि, ज्योतिष्चक्रनो चार, द्वीपसमुद्र, नरकावासा विमानोनुं प्रमाण विगेरे विषयो दर्शावे छे । मुक्तिमार्ग, साधु-श्रावकधर्मनो आचार, क्रिया, शुभमार्गनी >卐yz卐>93卐CO! -卐> >卐 -卐 <卐 ॥४ ॥ > >
SR No.600335
Book TitleNavtattva Prakaranam Sumangalatikaya Samalankrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmvijay
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year1934
Total Pages376
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size34 MB
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