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________________ weaasamosomeaawasanvaawanavar व अर्थ:-देवलोकमां नवो उपनो देवता दिव्यकामभोगमा मूर्छित नथी, अनित्य जाणी अगृद्ध गढित नथी, भति आसक्त नथी; तेहन पह, मन होय छे जे माहरे मनुष्यभवना धर्मनां उपदेशक आचार्य, उपाध्याय धर्मना प्रवर्तनार प्रवर्तक, स्थविर गणीगच्छना स्वामी गणधर भगवंतना शिध्य विशेष गणावच्छेद ते गच्छतुं अंश केटलोएक समुदाय लेइ विचरे, जेहना प्रभावथी महारे आ प्रत्यक्ष एहवो रूप देवतानी रिद्वि, दिव्यकांति, दिव्यदेवप्रभाव में सम्यमभावें पाम्यो तेहथी हुँ जाउं ते उपकारी भगवंतने वांदु, नमस्कार करूं, सत्कार आदर देउं, वस्त्रादिक देइ सन्मान दे कल्याण, मंगल, दैवत देवचैय अरिहंतनी प्रतिमाने जिम सेविए तिम सेवू. उचित मतिपत्तिवडे अने वली ते देवताने एहची भावना थाय छे के (एसणं माणुस्सए भवे णाणीइवा तवस्सीइवा अइदुक्कर दुक्कर कारगे तं गच्छामिणं भगवंतं वंदामि णमंसामि जावपज्जुवासामि) देवताना मनमा || एवं आवे जे एह मनुष्यभवमां मोटा नाणी छे, अथवा तपस्वी छे, अति छेली करणीनो करनार छे, सिंहगुफा सर्पविले काउसग करे छे, दुःकर ब्रह्मचर्य पाले छे, ते माटे हुं जाउं, ते भगवानने वांद, नमस्कार करुं यावत् सेवा भक्ति करूं; आवी उत्तम भावनावाला देवोने बाल शी रीते कहेवाय ? नज कहेवाय. ____ वलि सुरवर टाळी संताप, नावन नावे करे परिताप ॥ अहह फुलह माणसनव लही, || गुरुयोगे तप संयम ग्रही ॥ ५६ ॥ आलसि गुरु साहम्मी तणो, वेयावच्च न कीधो घणो ॥ श्रा- || | गम पूरो न सक्यो नणी, चरण तीम नहुँ पाली घणी ॥५७ ॥ ए संयोग.किहां पावस्युं, सुद्ध | ADDEDoDAGDaDaraD/10DP//aon
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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