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सुर
दीपिका ॥१९॥
तेमने नथी ते माटे. क्षपकश्रेणीना अभावयी क्षीणमोह नयी. आ पाठ श्री भगवती जीना ५ शतकना चोथा उद्देशीने विषे छे. वर्तमान चोथे सुर ढुंत, अगियारमें जावत विहत ॥ जीव गण इह बे स्यो जेद, श्रमण श्रावकथी अधिक वेद ॥ ३२ ॥
सम्यकदृष्टि सर्व देवो चोथा गुणस्थाने वर्ते छे, अने अनुत्तर विमानवासी अनुस्कटवेदी उपशांतमोहवाला होवाथी अगीआरमा गुणस्थानना जेवा भावमां वर्ते छे. जीवस्थानमां तो कांइ भेद नथी, छतां केम भेद ? तो के अनुत्कटवेदी एटले उपशांतमोही आश्रिभेद छे, अने ए अनुत्तर विमानवासी देवो अल्प विकारी होवाथी एटले एमने अवेदी का | छे, अने अनंत सुखी का छे. "अप्प वियारा अनंत सुहा" एम संघेणीमां कीधेलुं छे. साधु श्रावकथी अधिक अवेदी छे. आवा उत्तम देवोने हीलवा ते महा मोहनीयकर्म उपार्जन करवानुं छे. ते जीव पाप पोताना माथा उपर लइ ले छे. कूम वचन नहु आणे हृदे, शत्र सुरेसर साधुं वदे ॥ श्रावक स्थूल मृषा टालता, श्रावकथी देवे अधिकता ॥ ३३ ॥
॥ श्रीभगवतीजीना शोलमा शतकना त्रिजा उद्देशामां कह्युं बे. ॥ सक्केणंभंते! देविंदे देवराया कि सम्मावादी, मिच्छावादी ! गोयमा ! सम्मावादी, णो मिच्छावादी। सके भंते! देविंदे
सु० दी०
॥ १९ ॥