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अबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जति ततोवि एगचाओ अप्पडिविरया. ॥ ७ ॥ - अर्थ:-अथ हवे अपर त्रीजु स्थानक मिश्रपक्ष तेनो विचार कहियें छैयें; यद्यपि ए स्थानक धर्म अधर्म करीने मिश्रित छे, तथापि एमां धर्मर्नु बाहुल्यपणुं छे, ते माटे ए धर्मपक्षज जाणवो. आ जगत्माहे निचे पूर्वादिक दिशिने विषे कोई एक मनुष्य एवा छे, ते कहे छे. अल्प इच्छावाला,अल्पारंभी एटले थोडेज आरंभे व्यापारादिक साये संबंध छे जेने, अल्प परिग्रही एटले थोडोज परिग्रह संग्रह करवानी मूर्छा संबंधी बुद्धि छे जेनी, धर्मानुगामि एटळे धर्म जे श्रुत चारित्ररूप तेनी केडे चालनार, यावत् देशथकी चारित्रने अखंड पालवे करी, श्रुतने आराधवे करी आजीविका करताथका विचरे छे. भलो छे आचार जेनो, भला व्रत छे जेने, सुप्रत्यानंद, साधु एटले सुखसाध्यसाधु, तथा साधुने विषेज आनंद हर्ष सहित वर्ते छे, तथा ( एगचाओपाणाइवायाओ के०) एकेक प्राणी जे बेइंद्रियादिक त्रस जीवो छे, तेने हणवाथकी निवां एवा, तथा एकेक स्थूल प्राणातिपात थकी, अत्यंतपणे विरम्या छे, विरक्त थया छे, जावजीवसुधी एकेक प्राणी जे पृथिव्यादिक द्वार तेने हणवाथकी अत्यंत विरम्या नथी, ओसरया नथी एटले एक सूक्ष्म प्राणातिपातथकी अविरता इत्यादिक सर्वपद, जेवां अविरतने आलावे कयां छे, तेवा आही पण जाणी लेवां, परंतु एटलुं विशेष छे जे; एक पॐ विरति, अने एक पो अविरति, | (जावजेयावण्णे के० ) यावत् जे काइ अनेरा तथामकारना पूर्वोक्त सावध अबोधिना कारण एवा का व्यापार, बीजा जीवोने परितापना करनार नीपजावीयें, ते थकी पण एकपड़े विरति अने एकपछे अविरति, ते विरताविरत कहियें ॥ ७॥
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