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________________ सुर दीपिका ।। ७ । कोई नथी; आ वधुं जे दृष्टिगोचर थाय छे ते भ्रम के मारे पोताना निज स्वरुपमां ज रमवुं जोइर; एन विचारी तेगे मौन व्रत धारण क. अने एक नेतर जेवा कोमळ काष्टनी मुखमुद्रा बनावी मुखमां घालीतेना बने छेडा काने पराव्या अने उत्तर दिशीमां जई मध्यरात्रिना समये अशोकवृक्ष नीचे पद्मासन लगावी ध्यानमां बेशी विचार करवा लाग्यो. ते समये एक देवता प्रगट धई प्रतिबोध कर्यो के - हे सोमील आ तारी प्रव्रज्या छे ते केवल दुःप्रव्रज्या छे, माटे श्री जिनेश्वर भगवाने कहेली सुमव्रज्या अंगिकार कर. ते उपर तेणे कांई लक्ष आप्युं नहि. ए प्रमाणे पांच रात्री सुधी उपदेश आप्यो. पांचमा दिवसे मध्यरात्रिए उत्तर दिशीमां उंबरवृक्ष नीचे पद्मासन लगावी सोमील बेठो छे, ते बखते देवताए प्रगट थई फरी फरीने कछु के, दे सोमील आ तारी दीक्षा जुठी छे ने आ तारुं कष्ट ते अज्ञान कष्ट छे, माटे तुं वारंवार विचार कर. एप्रमाणे वे त्रणवार कहेवाथी तेणे मौननो त्याग कर्यो अने देवताने कथं के तमे कोण छो, अने मारी दीक्षा केम खोटी छे ? देवताए क के, हुं देव लुं, ने तने हितबुद्धिधी कहुं हुं के आ तारुं अज्ञान कष्ट अने दीक्षा जुठी छे ! पण श्री • पार्श्वनाथजीए भाखेलो धर्म साचो छे अने तेमनी पासे तें जे व्रतो अंगिकार कर्यो छे ते पण साचां छे ने ते फरीथी आराधवा योग्य छे. आसांभळी सोमीलने सानंदाश्चर्य थयो, तेणे फरीथी द्वादश व्रत अंगिकार कर्या अने व्रतमां स्थिर थयो. देवता नमस्कार करी स्वस्थानके गयो. पछी सोमीले घणो काळ चोयभक्त, छठ्ठभक्त अने अठ्ठपादिक पासखपण अने मासखम गादिक तपस्या सु० दी० ॥ ७ ॥
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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