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| विषे, राजगृहीनगरीना गुणशील चैत्यने विषे वारप्रनु समोसर्या, ते समये घणा मुनि, घणी
साध्विर्ज, घणा श्रावको, घण। श्राविकाठ, घणा देवो अने घणी देवीउ, अर्थात् चतुर्विधसंघनी | सना वच्चे जेवी रीते या त्रण अधिकारवाद्वं पर्युषणाकल्प श्रीमुखथी प्ररूप्यु, तेवीज रीते हूं।
(नप्रबाहुस्वामी) पण तमो शिष्यवर्ग अने चतुर्विधसंघ अगामी कहुं बु. तात्पर्य एज के श्री | वीरप्रजुए कंश एकलाएज कोई एकांत खुणानो आश्रय लइ आ त्रण वाचना वांची के कही | नथी, परंतु चतुर्विधसंघ सम्यक्दृष्टिवंतनी सन्नामां विराजमान थर स्वयं वाणीवमे त्रण अधि| कार गौतमादि गणधरदेव प्रत्ये प्ररूपेल . तथा जेम ते गौतम तथा सुधर्मास्वामीए जेवी रीते ए त्रणे वाचनाउँने अमलमां मूकी तेवीज रीते हुं (जवाहुस्वामी) पण गुरुपरंपरा क्रमवमे ते त्रण अधिकार न्यूनाधिक कर्या विनाज कहुं बु. ते त्रण अधिकारवावं पर्युषणा कल्पनाम अध्ययन ‘सअहं' कहेता प्रयोजनयुक्त, परंतु निरर्थक नहीं. 'सहेजयं'-कहेतां हेतुसहित थे, एटले
१ आ व्याख्या टीकामां छे.
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