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________________ ब्रह्मवा वनी ॥ ६७ ॥ | उच्छेद मैंदु कियौ निरधार है ॥ जंतरमै मंतरमैं वकै व तंतरमैं शब्द निरंतर में दोवत उच्चार है, प्रणव प्रसिद्ध ऋद्धि वृद्धि सुखदायक है जपत हरखचंद ऐसो उ जॅकार है ॥ ३॥ सिद्धिनकौं सिद्धि ऋद्धि वृद्धि देहि संतनिकौं महिमा महंतनकौं देत बिन मांदी है, जोगी कौं जुगति मुकति देति मुनिनकौं जोगी कौं जुगति गति मति उन पाढ़ी है | चिंतामनि रतन कलप वृक्ष कामधेनु सुखके समाज सब याकी परिठांदी है, कहे मुनि हर्षचंद लखि देख ग्यानदृष्टि कार मंत्र सम और मंत्र नांदी है ॥ ४ ॥ धंधनावकोसो इह जगको सुजाव ता मैं अधिक ग्यान जावदुकी अँधियारी है, मोहकी वयार सेती उमत मिथ्यातरज जिन्हें ग्यानदृष्टिकौं मलीन कर मारी हैं ॥ काम क्रोध लोन मोद प्रगट प्रमाद वसै रागदोष चोरढुकी नीति जहां जारी है, ऐसे जववासतें उदास ह्वेकें ग्यानीजीव साधत मुकति ताकौं वंदना हमारी है ॥ ५ ॥ अगम अगोचर अलख अविनाशी ब्रह्म मोहकै मिलाप देखो कैसी नाच नाचा है, कबहु ए केंद्री विककेंद्री सककेंद्री जयो गयो नरकादि गंति जहां दुख साचा है ॥ कबहु नरेंद्र व्र०बा० ॥ ६७ ॥
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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