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श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनेमिच
न्द्रीया सुखबोधाख्या लघुवृत्तिः ।
॥३८४॥
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं। विजढम्मि सए काए, अंतरेयं वियाहियं ॥ १५३ ॥
पत्रिंशं एएसिं वन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वा वि, विहाणाई सहस्ससो॥१५४॥ * |जीवाजीव___व्याख्या-सूत्रदशकमपि स्पष्टम् ॥ १४५-१४६-१४७-१४८-१४९-१५०-१५१-१५२-१५३-१५४ ॥ विभक्ति| पञ्चन्द्रियानाह
नामकमपंचिंदिया उजे जीवा, चउबिहा ते वियाहिया।णेरइय तिरिक्खा य, मणुया देवा य आहिया १५५ ध्ययनम् । ___ व्याख्या-स्पष्टम् ।। १५५ ॥ तत्र तावन्नैरयिकानाहनेरइया सत्तविहा, पुढवीसू सत्तसू भवे । रयणाभ सकराभा, वालुयाभा य, आहिया ॥ १५६॥
संसारिजीवपंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा। इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया ॥ १५७॥
वक्तव्यता। लोगस्स एगदेसम्मि, ते सत्वे उ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउविहं ॥१५८॥ संतई पप्पऽणाईया, अपज्जवसिया वि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥ १५९॥ सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण वियाहिया । पढमाइ जहन्नेणं, दसवाससहस्सिया ॥१६॥ तिन्नेव सागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया । दुच्चाए जहन्नेणं, एगं तू सागरोवमं ॥ १६१ ।। सत्तेव सागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया । तइयाए जहन्नेणं, तिन्नेव उ सागरोवमा ॥ १६२॥ दससागरोवमाऊ, उक्कोसेण वियाहिया। चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव उ सागरोवमा ॥ १६३ ॥ सत्तरससागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया। पंचमाए जहन्नेणं, दस चेव उ सागरा ॥ १६४ ॥ ॥३८४॥ बावीससागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया । छट्ठीइ जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥ १६५ ॥ तित्तीससागराऊ, उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥ १६६ ॥