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श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनेमिच
न्द्रीया सुखबोधाख्या लघुवृत्तिः ।
एकविंश समुद्रपाली
याख्यमध्ययनम्।
समुद्रपालस्य वक्तव्यता।
॥२७४॥
उवेहमाणो उ परिवएज्जा, पियमप्पियं सब तितिक्खएज्जा । न सब सवत्थऽभिरोयएजा, न यावि पूयं गरहं च संजए ॥१५॥ अणेग छंदा मिह माणवेहिं, जे भावओ संपकरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा, दिवा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥१६॥ परीसहा दुविसहा अणेगे, सीयंति जत्था बहुकायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहेज भिक्खू, संगामसीसे इव णागराया ॥ १७॥ सीओसिणा दंसमसा य फासा, आयंका विविहा फुसंति देहं । अकुकुओ तत्थऽहियासएजा, रयाई खेवेज पुराकडाई ॥१८॥ पहाय रागं च तहेव दोसं, मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो। मेरु बवाएण अकंपमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ॥१९॥ अणुण्णए नावणए महेसी, न यावि पूर्य गरहं च संजए। से उजुभावं पडिवज संजए, निवाणमग्गं विरए उवेइ ॥२०॥ अरइरइसहे पहीणसंथवे, विरए आयहिए पहाणवं ।। परमट्ठपएहिं चिट्टई, छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥ २१ ॥ विवित्तलयणाई भएज ताई, निरोवलेवाइं असंथडाइं। इसीहि चिण्णाई महायसेहिं, कारण फासेज परीसहाई ॥ २२ ॥
॥२७४॥