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कल्प० बारसा
| महावीर
चरि०
॥ २१ ॥
| सणंसि पुरत्थाभिमुहे निसीअइ, निसीइत्ता अप्पणो उत्तर-पुरच्छिमे दिसीभाए अट्ट भद्दासणाई
सेयवत्थ-पच्चुत्थुयाइं सिद्धत्थय-कय-मंगलोवयाराइं रयावेइ, रयावित्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणा| मणिरयण-मंडियं, अहिअ-पिच्छणिज्जं, महग्घ-वर-पट्टणुग्गय, सह-पट्ट-भत्ति-सय-चित्तताणं, ईहामिय-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किंनर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजरवणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं अभितरिअं जवणिअं अंछावेइ, अंछावित्ता नाणा-मणिरयण
भत्तिचित्तं अत्थरय-मिउ-मसूर-गुत्थयं सेयवत्थ-पच्चुत्थुअं सुमउअं अंगसुह-फरिसं विसि, | तिसलाए खत्तिआणीए भद्दासणं रयावेइ ॥सू. ६३॥ रयावित्ता कोडुंबिय-पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता | एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंग-महानिमित्त-सुत्तत्थ-धारए विविह-सत्थ-कुसले सुविण-लक्खण-पाढए सद्दावेह ॥सू. ६४॥ तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सिद्धत्येणं रण्णा एवं वुत्ता 8 समाणा हद्वतुट्ठ जाव हियया करयल जाव पडिसुणंति ॥ सू. ६५॥पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तियस्स अंतिआओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता कुंडपुरं नगरं मझं मज्झेणं जेणेव सुविण-लक्षण
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