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________________ उपधान श्री जैन प्रत विधि. विधि. ॥ २७॥ मंगलमहाश्रुतस्कंध, श्रीजुं उपधान शक्रस्तव अध्ययन, पांचसु उपधान नामस्तव अध्ययन, (बीजु उपधान प्रतिक्रमणश्रुतस्कंध, चोथु उपधान चैत्यस्तव अध्ययन, छटुं श्रुतस्तव सिद्धस्तव मध्ययन.) पूर्वचरण पदपइसरावणी (जे उपधाननी चे वाचना होय तेमा पहेली न थइ होय त्या सुधी) उत्तरचरणपदपइसरावणी (बीजी वांचना न थइ होय त्यां सुधी) भने जे उपधानमा त्रण वांचना होय त्यां पूर्वचरण पदपइसरावणी (पहेली वांचना न थइ होय त्यां सुधी.) क्रमागतपदपइसरावणी (बीजी वांचना न थइ होय त्यां सुधी) उत्तरचरण पदपइसरावणी (त्रीजी वांचना न थइ होय त्यां सुधी) अने जे उपधाननी एक वांचना होय त्यां पूर्वचरण, क्रमागतचरण, उत्तरचरणपदपइसरावणी पाली (उपवास अथवा प्राबिल होय तो) तप करशुं, (नीवी एकासगुं होय तो) पारगुं काशुं एम कहे. गुरु कहे करजो. शिष्य कहे इच्छं, खमा० दइ इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पच्चरकाण करावोजी, पछी गुरु उपवास, भायबिल अगर नीवी जे पच्चरकाण होय ते करावे. पछी बांदणाचे देवा. पछी खमा० दइ इच्छाकारेण संदि० भगवन् ! बेसणे संदिसाहु ? खमा० दइ इच्छा संदि० | भगवन् ! बेसणे ठाउं ? खमा० दइ प्रविधि आशातना मिच्छामि दुकडं. हवे पवेय' कर्या पछी राइ मुहपत्ति पडिलेहवी. .. 米米米杀出米%深深深深%未出米肃器端米 २७॥
SR No.600317
Book TitleJain Vrat Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhisuri
PublisherJain Sangh Madras
Publication Year1938
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size7 MB
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