________________
प्रस्तावना.
SarasRN निन्दन्तु नीति निपुणा यदि वा स्तुवन्तु । श्लोक. लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ॥
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा। न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥
सत्पुरुषोंका कथन है कि-"आखिर सत्यतिरे" और "सत्यका वाली साहब" तथा "सच्चे का बोल पाला और झूठे का मुह काला" यह बातों अक्षरेक्षर सत्य है, निसंशय है. फक इसका परिचय लेने वालाही चाहिये, जो सत्यवंत इन बचोके पक्के आस्तिक निश्चयात्मक होते हैं. उनकी कोई बडे नीति शास्त्र के पारग भी कभी चाह निन्दा करें, चाहे स्तुनी करें, लक्ष्मी (धन) घर में बहुतसी आधे, चाहे चली जाय, प्राण चाहे अभी जॉय, चाहं कल्पान्त में. परन्तु धीर लोग न्यायका - सत्य का मार्ग छोडकर एक पगभी उससे वाहिर नहीं चलते है. ऐसा कथन वरोक्त श्लोक में किया है. इस बातका हुबहु तादृश्य चित्र बताकर सत्यवन्त शीलबन्त का डामाडोल हुवे चित को स्थिर करने - द्रढ करने, यह मन्दिरा सतीका चारित्र बडाही अशर कारक है. इस का श्रवण सबही को लाभ कारक है. परन्तु विशेषत्व स्त्री यों को तो यह चरित्र अद्यत स्थिर चिंत से अवस्यही पठन श्रवन मनन नि