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७॥ आपदेशों मोटा नृप ताइ । जो मुज कर्म अवलाइ। तो ते राजा राज गमाइ । भिख्यारी थाइ ॥ कर्म ॥ ८ ॥ जो देशो कधी रंक भणीने । उदय हुवे पुण्याइ ॥ तो ते । क्षिण अन्तर ने माइ । महाराजा थाइ ॥ कर्म ॥ ९ ॥ तेह थी आपका कोप को मुजने । जरा डर नहीं आइ ॥ नहीं मानु मिथ्या जबरी से । डरूं नहीं डराइ ॥ कर्म ॥ १० ॥ सहू शभा जन कहवे बाइ । तजो तुम हटीलाइ ॥ मानो बचन पिता भूपत को । ज्ञाना वन्त थाइ ॥ कर्म ॥ ११ ॥ वक्त विचारो ऊंडो एवारो । पड्या राय वश मांइ ॥ कुँवरी
कहे वश पड़ी कर्म के । और करे कांइ ॥ कर्म ॥ १२ ॥ कहे नृप सह ने बोलो मत को Aion खुटी इण पुण्याइ ॥ कर्मे दुःख लिखा कर लाइ ते । देवू हूं बताइ । कर्म ॥ १३ ॥
समजाया न समजे बचन से । जे लातां चहाइ ॥ देव चमारका चर्म पूजावे । रोशेयोन फरमाइ ॥ कर्म ॥ १४ ॥ कहे भटने वेगी जावो तुम । जोवो नगर मांइ ॥ धर्म शाला भी देवल ने वाग में । जिहां जो नर पाइ ॥ कर्म ॥ १५ ॥ गलित कुष्ट तस अंग झड पडिया निराधार होवे ॥ निर्धन कंगाल कृपण दुर्बल । कूरुप' कर शाहे ॥ कर्म ॥ १६ ॥ लावो
पकडी शिघ्र इहां तस । देर नहीं करणी ॥ इण बाइरे ऐसो नशीबे । सुखी होसी परणी| - कर्म ॥ १७ ॥ धस मस करता सीपाइ चाल्या । सह विस्मय पाया ॥ हाँसी की यहा।