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I दूजे खंड दश ढाल ॥ अमोल संप सदा राखीये । पामो सुख संपत विशाल ॥ संपे ॥ २॥ १
॥6द्वितय खन्ड-सार ॥ कुंडलिया छंद । जब लग योत पुण्य है। तब लग संपत जाण ॥ संपत से लक्ष्मी रहे । शंका दिल मत आण ॥ संका०॥ दान पुण्य सकत्य की. जे। जिणस्युं बधे फिर पुण्य । माया सो कभी नहीं छीजे ॥ तिलोक ऋषि कहे कूप |
जल । उलचां होत सवाण॥जब० ॥इति द्वितीय स्कन्ध संप प्रबन्ध रुप समाप्तं ॥ ॐ ॐ M॥ दुहा ॥ निजानन्द नन्द नित्य । निज प्रदेश प्रतिष्ट ॥ पर परचय प्रमुक्त शिव । नमू # तेही निज इष्ट ॥ १॥ इष्ट सिद्ध करे इष्टए । इष्ट फल दातार ॥ इष्ट कथन इष्ट प्राणी
को । सुणो प्रमाद निवार ॥ २ ॥ सम सम्वेग निर्वेग ने । करुणा श्रधा पांच ॥ लक्षण समकिती जीवका । पर दुःखे निज दे आंच ॥३॥ जिनदास सुगुणी उभय । सम्यकत्व Hदोनो व्रत धर सार ॥ संप राखण निज घर विषे । किया अनेक उपचार ॥४॥ ज्वर युक्त जिम नर भणी । पये पान विष थाय ॥ तिम छेइ इर्वे भर्या । पर गुण नहीं सुहाय ॥ ५॥ घरजन स्व परजन सभी । करे दम्पतिका वखाण ॥ छेउ सुणी रीसे जले । लाग्या जाणे । वाण ॥ ६॥ एक दिन एकंत छेउं मिली । इसो करे विचार ॥ अपमान होवे दोइ तणां । इसो करो ऊपचार ॥ ७ ॥ हाँसी कर नारी कहे । थें फोकट करो बात ॥ पण
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