________________
॥ प्रस्तावना ॥ ___ कल्लाण कोड जरणी, दुरीत दूर ठवणी ।
संसार जल तारणी, एगंत होइ जीव दया ॥
गाथा
अथात्-श्रीजिनेश्वर भगवंतने फरमाया है कि-क्रोडौं कल्याण को जन्म देने वाली, दुरित (पाप) को दूर रखने वाली, और भवोध रुप दुस्तर संसार समुद्रसे तार के अनंत, अक्षय, अव्यायाध, सुख रुप मोक्षस्थान में पहोंचाने वाली, एक श्री जीव दया ही है. शास्त्र में मुख्यता से दया के दो भेद किये हैं-१ स्वदया, और २ परदया. अपणी आत्मा का रक्षण करना उसका नाम स्वदया है, परन्तु इसका अर्थ ऐसा नहीं समझना कि-विषय (इन्द्रियों के) भोग, कषाय (उच्चता की गरुरी) आदिके पोषणसे आत्मा को मशगुल लुब्ध बनाके मजा मानना सो स्वदया है, क्योंकि विषय आदि के पोषणके जो मान ने रुप सुख हैं, वो “क्षिण मित सुख्खा, बह काल दुःख्खा;" अर्थात् क्षिणमात्र सुख जैसे मालुम पड के, फिर इस भव में और पर भवमें अनंत दुःख दाता हो जातहै. इसलिये स्वदया उसीका नाम है कि-विषय कषाय आदि कू कृत्यों से आत्मा को बचा के, ज्ञान, ध्यान, तप, संयम आदि सुकृत्योम आस्मा को संलग्न करना-जोडना, सो पथ्य औषधी की तरह दोनो भवमें सुख दाता हो. और दूसरी पर दया सों, छह काय (पृथ्वी, पाणी, अग्नी, वायु, विनाशपति और त्रस [हलते चलते जीव] इन) की रक्षा करनी सो पर दया. इन दोनो प्रकार की दया का पालन सर्व प्रकार से श्री साधुजी महाराज करते हैं, सो तो सब जानते हैं, परन्तु गृहस्थ को इनका आराधन किसतरह
* मराठी भाषेत आर्या-हित भजन इश्वरा चे,धन सुत दारादिलितही मात्र हि न.पार पारीणाम दुःख प्रद,मग त्या का ह्मणु न. ये आहेत. -मोरोपंत.