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- धर्मोपदेश समये-देशनाकाले तत्वतः अशोकनामा तरुर्भवतीत्यर्थः - अघ उपविष्टानां
॥२५४॥ शोकनाशः स्यादित्यन्वों -श्रवणाद-शोकश्च । भावार्थ - अब पाठ श्लोको के द्वारा आठ प्रातिहार्यो का वर्णन करते हुए प्रथम मशोक वृक्ष कप प्रातिहार्य का वर्णन करते है - हे जिनेश्वर । जिस समय आप धर्मोपदेश करते हैं उस समय मात्र आपके सामीप्य के प्रभाव से ही वृक्ष भी अशोक बनता है तब फिर मनुष्य अशोक बने तो इसमें आश्चर्य क्या ! क्यों कि प्रभु के समवसरण में अशोक नामक वृक्ष होता है और मनुष्य धर्मोपदेश श्रवण से अशोक - शोकरहित होते हैं अथवा यह योग्य ही है कि सूर्य का नव उदय होता है तब एकेन्द्रिय वृक्षादि सहित समग्र जीवलोक प्रबोधविकास प्राप्त करता है तब सूर्य रूप प्रभु की धर्मदेशना से मनुष्य और वृक्ष भी अशोक हो तो इसमें माश्चर्य की क्या बात हैं ॥ (१९) मन्त्र - णहूसाव्वसएलोमोन, णंयाज्झावउमोन, णयारियआमोन, णद्धासिमोन, णताहंरिअमोन, हुलु हुलु कुलु कुलु चुलु चुलु स्वाहा । ४ ४६॥ * - ॐ ही अर्ह णमो पुफिगरुबत्ताए। १३HAN ॥ मन्त्र - ॐ नमो भगवति पुष्पपल्लवकारिणि नमः । १७ ५६ ॥ ॐ....परम....अवन्ति.... પાના ર૨ ના બને મંત્રો બેલી (આખી થાળી) અષ્ટપ્રકારી પૂજા જાપ. (૧૮) સાંઈ સરૂપ કર પાઉ, જ જો વિરતા નહિ હોય; કાળ અનાદિ મેં વિષય કષાયે, યુંહિ ગયે ભવ ખેાય. સાંઇ• ૧ ધર્મદેશના અવસરે તુમ છે, તરૂ અશોક જ હેઈ; ષવિક લેક અશક જે હેઈ, દહાં અચરિજ નહિ કે ઈ. સાંઇ, ૨ સાત ઇતિ તસ દરિ કહત હે જિહાં વિચરત નું જોય; કર્યું દિનકર જગત B વિકસત, સહીહ ૯યલોય. સાંઇ ગુણ સ્વરૂપ જે જે પ્રગટાવે, એ પ્રતા૫ સવિ તોય; નય કહેં ભવબંધન છોડણકું, એ સો દેવ ન કેય. સાંઈ જ
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