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શ્રી
કલ્યાણુ મન્દિર
મહામન્ત્ર
पूजन
विधिः
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भावार्थ- मैं तो आपका वर्णन न कर सकूं परन्तु केबली जो कि सब कुछ जान सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं वे भी आपके सभी गुण नहीं कह सकते ऐसा कहते हैं - हे नाथ । कोई भव्यात्मा मोहनीय कर्म के क्षय के कारण केवलज्ञान उत्पन्न होने से
आपके गुणों का अनुभव करता है और वह जानता भी है तब भी वह गुणों को गणना करने में समर्थ नहीं। आयुष्य की अस्पता होने से सर्व गुणों की गणना करना संभव नहीं। जिस प्रकार कल्पान्त काल में समुद्र का पानी उछलने से दूर होने से उसमें निहित रत्नों का समूह प्रगट रूप से दिखाई दे तब भी किसी के द्वारा उसकी याद नही ली जा सकती उसकी गिनती नही की जा सकती (४) ऋद्धि- ॐ ह्रीं अर्ह णमो समुद्दे भयं साम्यति बुद्धीणं १७ अक्षरी ॥ मन्त्र - ॐ नमो भगवति पद्मगृह - निवासिनी नमः स्वाहा १७ ॥ ॐ परम अवन्ति भने भत्र बोखी (खाजी थाजी) અષ્ટપ્રકારી પૂજા જાપ. (૩) પુર્તિસાદાણી પાસજી, આશા મારી પૂરી; દુઃખ અનાદિ પર પુરા, ભવસ’ટંટ ચાર પુ॰૧ યદ્યપિ કેવલજ્ઞાન થે, ગ્રહ્યો તુમ ગુન જોરા, તે હૈં વચન ગુણે કરી, કહેવા કુન સુરા, પુ॰ ૨ જ્યું ક્ષાંત – પત્રને કરી, મીયા સકલ ઉસેરા, રત્નાકરમે રત્નના, થયે પ્રકટ ઉકેરા પુ॰ ૩ રૃખે પણ ન ગણી શકે, કુન જાન સેરા, જ્ઞાનવિમલ પ્રભુ ગુણ ઘણા, કહૌ ક્રમ તિમ તેરે પુ॰ ૪
आहे
थी, अनुभव
तां, तोय ते नाथ ! भय, निश्ये सर्वाज्ञ ! तारा, गुरुशुशाशु भागुवा शक्ति जीन थावे, ! सघ, हर हीधु उछाजी, मेवा अलोधिना है, प्रस्ट रतनने, आभासी राई छे. १ ॥४॥ ४-५ ( नमोऽर्हत्... ) ॐ अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ ! जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लसद संख्यगुणाकरस्य । stuff न निजवाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥ ५ ॥ स्वाहा
| ॥ २२७॥
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