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नरसुन्दर
कथा
श्रीदें चैत्यश्रीधर्म० संघाचारविधी ॥४१६॥
ARATHIBITAHATIALA
वुत्तो निवो भणइ सुहडा।। उवरिमभागे पिच्छह कंचण निकंचणं समणं ॥२८॥ देवि गवेसितु लहुं कहंति रत्रो जहा इहं देव! पुप्फकरंडाणे सुरअसुरनरिंदनमियकमो ॥२९॥ निम्मलकेवलकलिओ बहुसमणजुओ अणेगलद्धिनिहीं । अजेव समोसरिओससिप्पहो नाम आयरियो ॥३०॥ राया तवप्पमा एवं संभवाएमिजं इत्य । जाओ म्हि निविसोऽहं ता तप्पासंमि गच्छामि ॥३१॥ तोसो सपरीवारो गयो नमित्तु पुरो समुवविट्ठो। कहइ मुणी इय धम्म नबजलहरगहिरसद्देग ॥३२॥"दुलहं लहिय नरभवं भविया! भवियन्वयानियोगेण । इहपरलोयहियकरं जहसत्तीए कुणह धम्मं ॥ ३३ ॥” इय सुणिय जंपइ निवो परभवगामी घडेइ कह जीवो। | जं भूयपणगमित्तं दीसइ नहु तदहियं किंपि ॥ ३४ ॥ भणइ गुरू जडपणभूयसमहिओ जइ जिओ न हुआ तो। भो सुहृदुहाई
को मुणइ ? को व अहयंति उल्लवह ॥३५॥ किंच-निसुयं दिटुं जिंघियमासाइयपुट्ठचिंतियाइ मए । इय इगकत्तारकया इमे विगप्पेऽवि कह हुञ्जा ? ॥३६॥ इच्चाइजुत्तिजुत्तं संसयरयहरणपवणपडिरूवं । गुरुणो वयणं सोउं बुद्धोराया इमं भणइ ॥३७॥ इच्चिरकालं कुग्गहगहगहियमणेण मे समणनाह ! के के जिया न हणिया? किं किं अलियं न मे भणियं ॥३८॥ किं किं न परस्स घणं गहियं ? किं किं न मइलिय सीलं?। किं किं अतुच्छमुच्छावसेण न व मीलियं दविणं १ ॥३९॥ किं कि नहु निसि भुत्तं ? किं किं महुपिसियमाइ नहु असियं । किं बहुणा? नत्थि जए तं पाजंन मे विहियं ॥४०॥ इण्हि मिच्चविसं पहुवयणामयरसेण नट्ठमे। नवरं नाहियवायं कमागय कह चएमि अहं ? ॥ ४१ । आह मुणिंदो नरवर ! एयं नहु किंपि सइ विवेगंष्टि । वाही दारिदं वा कमागयं मुथए किन ॥ ४२ ॥ तथाहि-केर ममंदा वणिणो धणस्थिणोऽणुकमेण दट्टण । लोहतउहप्पकणए पुव्वगहिए पमुत्तूण ॥४३॥ चित्तूण पवरस्यणे पगरिससिरिसुक्खभायणं जाया। अबे तहा अकाऊण दुत्थिया सोअमणुपत्ता ॥४४॥ एवं
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Limilim MINAIPANI M
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