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________________ श्रीदे० चैत्य० श्री - धर्म० संघाचारविधौ ॥३६९॥ कथं तुमए जं पुर्वि तं उवागयं इहि । परितावेण न छुट्टसि सुहपरिणामेण सह सव्वं ॥ ४२ ॥ जह पुढविहिय दुकयवसेण तुह आगयं इमं दुकूखं । ता रे जिय! मा कृप्पसु परेषु वीरंगयांईसु ॥४३॥ तं पत्थियपि जत्तेण होइ नहु इह न जं कयं पुषिं । तो दुहसुहाण नूणं निमित्तमित्तं परो होइ ॥ ४४ ॥ जं न कओ पुल्वभवे धंमो रे जीव ! सुंदरो विउलो । तेण तुहं इह दुकूखं संजायं दारुणं दुसहं ||४५|| संविग्ग भावियाओ इय ताओ अणसणं विहेऊण । जिणसिद्धसाधम्मे चउरो सरणं पवति ॥४६॥ नवकारसुमरणपरा कण|गसिरी मरिउ तत्थ उचचना | इंदस्स अग्गमहिसी नवमिया नाम सा य अहं ॥४७॥ वेसमणअग्ग महिसी धणसिरी नाम तं पुणुप्पन्ना। तो चविय तुमं जाया बलदेवसुया सुमइ भद्दे ! ||४८ | इय आसी णे तइया संकेओ जा इओ चंवइ पढमा । इयरीहिं बोहियन्ना सा भवसयदुलहजिणधम्मे ||४९|| ता तुह पडिवोहकए इहागया भइणि ! तुज्झ मा मुज्झ । इह विसयसुहलवेणं सरेसु पुव्वकयसुकाई ॥५०॥ तथाहि - जिणजंमणमहिमाओ जा विहियाउ सुमेरुसिहरंमि । जं नंदीसरदीवे सासय इयराओ जाओ ॥ ५१ ॥ तथा चागमः- दो सासयजत्ताओ तत्थेगा होइ चित्तमासंमि । अट्ठाहियाउ महिमा बीया पुण अस्सिणे मासे ॥ १२॥ तह चउमासियतियगे पज्जोसवणाइ तह य इय छकं । जिणजम्मदिक्ख केवलनिव्वाणाइसु असासइआ ॥ ५३ ॥ जे वंदिया य दुश्चरतवचरणा चारणाइवरसमणा । जं तम्मुहाउ निसुयं वीयभवे सिज्झिहिह तुझे ॥ ५४ ॥ जं हवियपूहयाओ जयंतमुणिमाइसिद्धपडिमाओ । जं भत्तीए नमियं दुवालसंगंपि सिद्धतं ||५५ || भद्दे ! घणसिरि बुज्झनु एयं सव्र्व्वपि अहह मा मुज्झ । जंमंतरियाइ तर भो कह विस्सारियं सव्वं १ ।। ५६ ।। सा सद्धा तुह धम्मे ताई तुमे जंपियाई विविहारं । किं वीसरियाई तुमे जेणं मंदादरा धम्मे १ ॥५७॥ जई निच्छसि पडिउं जो संसारमहासमुद्दमज्झमि । वरजाणवचतुलं ता पव्वज्जं पवज्जेहि ||५८ || इय भणिउं उप्पइया देवी आरु सुमतिक न्याकथा ॥३६९॥
SR No.600278
Book TitleChaityavandanbhashyam
Original Sutra AuthorDevendrasuri, Dharmkirtisuri
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1988
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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