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________________ A बन्धुदत्तकथा श्रीदे. चैत्यश्रीधर्म०संघाचारविधौ ॥२२॥ णेहिं । न य देवदाणवेहिंवि रक्खिजइ मच्चुणो पाणी ॥१८॥ तथा-जम्मजरामरणभएहिं विहुए वाहिवेयणाविहरे। मुनु जिणवरवयणं संसारे अस्थि नहु सरणं ॥१९॥ अविय-बहुविहआवइमझे जं जीविजट खणंपि तं चुजं । न चिरं खुहियमुहत्थं सरसफलमवद्धिय चिट्ठे ॥२०॥ जं जेण कयं कम्मं सो तं अणुहबर अपणो तेच । इय अमुणतो मूढो सयणजणो बिलयए पहुयं ॥२१॥ काउं मयकिशाई तीसे जाओ कमेण गपसोगो ! जे जीवाणं पानं पिम्सोमोय पंचदिणा ॥२२॥ ततो अनंकन परिणावइ धणई नियं पुरातानिहु विमूहयाए विवाहीतरदिशिल्या ॥२३॥ अन्न मिले जो अप्पाणासरं व मन्नतोपडिऊण अंतराले कुवियकयंतो कुणइ अन्नं ॥२४॥य परिणियमिनाओ परिणयणाणंतरिश्चिय दिणमि । उन्मजाउ माओ उदयेणं अमुहकम्मरस गरि५|जो--"पविसउ बिचरं आरहगिरिवरं मंसमाइ सिकारोबाराहरदेवं वातविन सुखद पुरकाण।२६।।दडोपरि पिटगसम विस-थो बंधुदनु दय नाम्रो निहियं लोरणं मलयलो हलुकोजेणं ॥२ा अन्भत्थणापरस्सविधणेण बहुमाऽवि सेन को देइ ! नियकन्नं किं कब करछेएण कणगेण ॥२८॥ सो विषअचित्तो चिचे चितेइ बंधुदत्तुति! किमिमीह पीवराह व सिरीइ मह दद्दयरहियाए। ॥२९॥ जओ-केरिसया व विलासा मा चाहिययस्स निधुई तस्स । जसान समसुदाहिया पिया थिला न असा धरंमि ॥ ३०॥ न चैवं भावपति-पत्नी प्रेमवती सुतः मुविनयो नाता गुगारला, स्निग्यो धुजनः सवाऽतिचतुरो नित्यं प्रसन्नः प्रभुः । निर्लोभोऽनुचरः परार्तिशमने प्राप्तोपयोगं धनं, पुण्यानामुदयेन संततमिदं कल्यापि संपद्यते ॥३।। तो सो चिंतासंतावताविरंगो पहीणसच्छाओ। दिवसे दिवसे सिजइ चंदो इव किण्हपखंमि ॥३२॥ ॥२२०॥
SR No.600278
Book TitleChaityavandanbhashyam
Original Sutra AuthorDevendrasuri, Dharmkirtisuri
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1988
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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