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श्रीदे
जसारकथा
चैत्य श्रीधर्म संघाचारविधौ ॥१८५॥
पणसक्कत्थया वा थयपणिहाणचियधुइतिगंता ॥९॥ भणितं च-'दुन्भिगंधमलस्सावि, वणुरप्पेसऽण्हाणिया । उभओवाउवहोचेव, तेण टुंति न चेहए ॥१०॥ तिमि वा कईई जाव, धुईओ तिसिलोइया।-चैत्यवंदनांते प्रणिधानरूपा, ताव तत्थ अणुमायं, कारण परेणवि ॥११॥जओ-सुरभवणं नियभत्रणं व होइ तह किंकरिबचक्कसिरी । सुइरं विलसति यसतणुम्मि उग्गसोहम्गपमुहगुणा ॥१२॥ मुद्दउचारो गुप्पयजलं व अवि एस हुञ्ज भवजलही। सिद्धिसुहंपि अभिमुहं नराण चिअबंदणपराणं ॥१३॥ अविअ-विसमंपि समं सभयपि निब्भयं दुञ्जगोवि सुयणिव्य । विहिविहियचेइवंदणभावओ जायइ जिणाणं ॥१४॥" इअसोउ निवो कुमरो अन्नोऽधि जणो ससत्ति गहिऊणं । चिहवंदणाइनियमे नमिय गुरुं सगिहमणुपत्तो॥१५॥ कइयावि मित्तजुत्तो कुमरो चउरंगसिनपरियरिओ।। जा जाइ सयवाडीइ निययनगराउ रेण ॥१६॥ ता नियइ कंपि पुरिसं कसिणमुहं उप्पहेण वचंतं । रायालंकारधरं परिमियपरिवारसरियरिअं॥१७॥ तो पसिऊण कुमारो तं पद इअ भाणए नियनरेहिं । नणु किदणु दिसह तुम्भे विसायभरपूरिअमणुन्च ॥१॥ किह उप्पहेण वञ्चह निवरूवधरावि तयणु इयरेण | गुनाओ वरपुरिसो एगो इय भणइ जह भदा! ॥१९॥ सोवीरदेसपडुणो पयावसूराभिहाणनरवइणो । दइआसि मयणरेहा रेहा इव स्ववंतीसु ॥२०॥ सा अन्नदिणे केणवि सुहसुत्ता अबहडा | तओ निवई । तदुसहविरहदुहिअं इस जंपैइ कोई जोइसिओ ॥२॥ देव! मणे मा तम्मसु अटुंगनिमित्तओ मए नाया। देवीइ |मयणरेहाइ विमलसीलाइ नणु सुद्धी ॥२२॥ तथाहि-अप्पडिरूवं स्वं देवीए निसुणिऊण ऊणमई। मयणसरपसरविहुरो कलिं
गपहुसीहसेणनियो ॥२३॥ सुरसम्मनामकाबालिएण आकिडिलद्धिजुत्तेण । निसि सुहमिन्ति(सुत्त) देविं हरावए दाउ बहुदवं | ॥२४॥ तं सोउ झत्ति ताडियजयढकासमिलियसपलबलो । अक्खलियपयाणेहिं राया पत्तो सदेसंते ॥२२॥ इयरोऽविहु चरन
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॥१८५॥
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