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श्रीदचा
श्रीदे. चैत्यश्रीधर्मसंघाचारविधौ ॥१६॥
कुलकोडीसु भमिय कहवि जिओ। इह लहइ माणुसतं सुदेससुकुलाइसुपवित्तं ॥५०॥ तत्थवि कुतित्थबहुले लोए दुलहा विसुद्ध- | धम्मसुई। जीइ अहिंसगधम्म पडिवन्जिय तरह भवजलहिं ॥५१॥ धम्मसुवि दुल्लहा तत्तरुई मिच्छत्तसेवए लोए। जंनेयाउयमग्गा
बहवे भस्संति मूढमई ॥५२॥ सद्दहणेऽविहु धम्मस्स फासया दुल्लहा उ कारण । कामगुणमुच्छिया जं विरमंति जिया न पावाओ | ॥५३।। जो उ मणुयत्तपत्तो सुद्धं धम्म सुणित्तु सद्दहिउं । जहविहिणा उ अणुदुइ सो इह लहु धुणइ कम्मरयं ॥५४॥ ता धम्मा
णुट्टाणे करेह जत्तं सया विहिपहाणे । धारेह सुद्धभावं भविआ! वज्जेह वितहभावं ॥ ५५ ॥ विहियमणुट्ठाणे वितहतं कुणइ दंसणं समलं । सगले नि तवनियमवयगुणा हुंति न बहुफला ॥५६॥ किंच-धम्मगयं वितहत्तं थोपि विसं व हाइ सुहनिय। पड़ेइ दोसजालं जणेइ बहुऽणत्यवित्थारं ।। ५७॥ उक्तं च-"धर्मानुष्ठानतथ्यात्, प्रत्यपायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौघजननो, दुष्प्रयुकादिवोपधात् ॥५८॥" अह पुच्छइ कणसरी भयवं ! कि मे पुराकयं कम्मं । पत्तामि जेगऽणत्थं इय पियवहथुविहराई ।।१९।। भगाइ मुणी पुण भद्दे ! धायइसंडस्स पुवभरहमि । संग्वउरनामगामे सिरिदत्ता इस्थिया आसी
६०॥ सा आजम्मदरिदा जीवह काऊण परगिहे कम्मं । रंधणखंडणपीसणगिहलिंपणवारिवहणाई ॥ ६१ ।। परगिहकम्मअभावा कयाइ सा कट्ठकारणेण गया। सिरिपब्वयंमि सेले सञ्चजसं नियइ तत्थ मुणिं ।। ६२ । तो सा चिंतइ जाणामि जम्मभिगमप्पणो सचरिएहिं । न कयं सुकयं पुवं तेण इहं दुक्खिया जाया ||६३।। सइदुकम्मनिदडाइ मे न थोपि इह कयं सुकयं । ता परभवेऽवि मझं दुहमेव हि केवलं होही ।। ६४ ॥ आजम्मउयरपूरणचिंताइ मयाइ मंदभग्गाए। भवकोडिदुल्लई हारियं हहा माणुसं जम्म ॥६॥ना अअवि मुणिमेयं नमिउं योउं च एयउबएस । सहलीकरेमि जम्मं निएवि तह एयमुहकमलं ॥६६॥ इय चिंतिय
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