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श्रीदे० चैत्य० श्री
धर्म० संघा
चारविधौ
॥१२१॥
| सुरो अहो भूप ! || ५८ ॥ मा नेसु इओ पडिमं वीनभए पंसुबहवो दोही । तो राया सविसाओ नमिय वयं सरम चलिओ ॥५९॥ बुट्टीइ सिवनइतडे खलिओ सिविरं निहित तत्थ ठिया । काऊण धूलिबप्पे दसवि निया तस्स रक्खट्टा ॥ ६० ॥ अह पज्जुसणादिवसे कय ववासे उदायो सूओ । पुच्छर पजोयनिवं का तुह कारीउ रसवइति ॥ ६१ ॥ सो चिंवह नूणमिणं मारिउ कामो विसाइणा तत्तो । जंपेइ सूर्य ! किमज कीरइ मे बीसु आहारो १ ।। ६२ ।। सूओ अंपइ सामी अंतेउरपरियरो यऽभचट्ठी । जं अज पज्जुसवणा तो तुह साहेम आहारं ।। ६३ ।। सो आह सुद्द्ध तुमए पन्चमिणं मज्झ सारियं सूप ! अज्जुनवासो मज्झनि जं पियरो मह परमसद्धा ॥ ६४ ॥ तं सूओ साहह गंतु रायाणो सोऽवि भगइ जाणंमि । से सड़तं जाणह घुत्तो पुण बहसगं काउं ।। ६५ ।। काराइ ठिए एयंमि जारिसे तारिसेऽवि नहु सुद्धा ! मह होइ पज्जुसवणा इय तं मुंचेइ नरनाहो ||६६ || दाउं अवंतिदेमं स महप्पा कुणइ तेण स्वामणयं । भालंकगोत्रणट्टा वियरह से कणगपहं च ॥ ६७॥ तप्पमिह पट्टबद्धा नित्रा पुरा आसि मउडनदचि । निचे बरिसारते उदायणो नियपुरं पत्तो ||६८|| जे लाभच्थी वणिया समागया तत्थ ववहरणहेउं । तेहिं चिय वसमाणं तं स्वायं दसपुरं नयरं ||६९ || इओ य-मह निवाणनिसाए गोयम ! पालयनिवो अवंतीए । होही पाडलियपहू सो असुअउदाइनिनमरणे ॥ ७० ॥ पालइ रअं सट्ठी पणपण्णसयं नवण्ह नंदाणं । नव मोरीणऽसयं तीस वरिस समिचस्स ॥ ७९ ॥ बलमिचभाणुमिचाण सट्टी नरवाहणस्स चालीसा । तेर निव गद्दभिल्लो कालयआणीयसगचउरो ||७२|| सुन्नमुणिवेयजुत्ता जिणकाला विकमो वरिस सही । | धम्माइथो चत्ता भाइल सगवीस नाइडे अट्ट ॥७३॥ तह धुंधुमार तीमा लडुविकमाइच बारसय वरिसे । दस बुद्धमिच अंधो हेहयवंसी असी भोओ ।। ७४ ।। इत्यादि । अह जिअपडिमं माइलनित्रो निमाए कमाइ पूअंतो । बहिआगए सुरे दट्ट्ट निग्गओ
गन्धारश्रावकः
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