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________________ तनि मुत्र-पष्ट उपाङ्ग 4 अयं दोसो ॥१॥ तत्थणं जे ते एव मासु मंडलाओ मंडलं संकममाणे मूरिए कण्ण कला निवदृत, तेसिणं अय दासा जणतरेण मंडलातो मडलं संकममाणे २ मूरिए कण्ण कला निति , एनालियं चणं अह-परतो गच्छति,पुरओ आगच्छमाण २ मंडल कालं परिहावति, रणं अदास ॥ तत्थ जे ते एकमाईसु ता मंडलातो मंडल संकममाणे २ मूरिए कण्णालानति एएणं णएणणेयव्वं नो चरणं इतरणं गेयव्यं ॥ इति बीय पाहुडस्म विसियं पाहाड सम्मत्त ॥ २ ॥ २ ॥ ता कवतियं खत एगमेगण मुहुत्तेग सूरिए गच्छति आहितति वदेज्जा ? तत्य खलु उनको यह दोप है. जो अपनर मंडल पर रहकर कर्ण कला की हानि करता है वह द्धा लोक में अर्थ मंडल पूरता हुवा जाये और अर्थ मंडल पूरता हवा आवे. यह मंडल से काल प्रति पूर्ण करे नहीं. इसी म अन्यतीयि को यह दोष है. इन में जा ऐ कहते हैं कि एक मंडल से दुमरे मंडलपर नाता हुवा सूर्य कर्ण कला की हानि करता है इसी कारण स उनको प्रज्ञा नहीं है. यहां कोई अन्यन्याय से नहीं होता है. या दूसरा पाहुना का दूारा अंतर पाहुडा हुआ ॥२॥ २॥ . है अब तीसरा अंतर पाहुडा कहते है-..अहो भगवन् ! आपके मत से सूर्य एकेक मुहूर्त में कितना क्षेत्र ११जाता है ? अहो शिष्य ! इस में अतीर्थी की प्ररूपणारूप चार पडिवृत्ति कही है अर्थात् इस में भिन्न २ चार मत हैं. १कितनेक ऐसा कहते हैं कि एक २ मुहूर्त में मुछ२ हजार योजन चलता है, २ कितने 48 दूमरा पाहुडे का तीसरा अंतर पाहुडा 487 सप्तदश 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600254
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_chandrapragnapti
File Size8 MB
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