SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ ४ ॥ एगेपुण एवमाहं मु ता पुरथिमिल्लातो लोगंतातो पाओ सरिए पुढवीआतो उतिटइ सेणं इमं लोगं तिरियं करति २ त्ता पचत्थिमिलंसि लोगंसि सायं सूरिए. पुढविकायं अणुपविसति २ ता पुढवि अहे पडिगच्छति, अहे २ पुणरवि अवरभू पुरथिमिलातो लोगंताओ पादो सृरिए पुढवियातो उत्तिति, एगे एव माहंभु ॥ ५ ॥ एगेपुण एवमाहंसु ता पुरथिमिल्लाओ लोगंताओ पादो सृरिए आउकाए उत्तिट्ठति सेणं इमं लोगं तिरिच्छं करेति २ त्ता पच्चत्थमित्रंसि लोगप्ति सायं सरिए आउकायं का कथन यह है कि यह देवतारूप सूर्य तथाविध जगत के सभाव से आकाश में उत्पन्न होता है और अस्त होता है और तीसरे का कथन यह है कि यह देवतारूप सूर्प सदैव स्थित पृथ्वीपर प्रदक्षिणा करता है. अब आगे और भी तीन मत आकाशोदय व समुद्रोदय के कहते हैं. ४ अब चतुर्थ मत वाले किनमेक अन्यतीथि ऐसा कहते हैं कि पूर्वदिशा के लोकांत के चरिमांत से प्रभात करता हुवा मूर्य पृथ्वी में से नीकलता है और तीच लोक में प्रकाश करता हुवा पश्चिमदिशा के लोक के अंत में संध्या समय पृथ्वी में ही अस्त होता है. कितनेक ऐसा कहते हैं कि पूर्व दिशा के लोकांत में प्रातःसमय में सूर्य पृथ्वी में से जनकलकर तीर्छ लोक में प्रकाश करता हुवा संध्या समय में पश्चिमदिशा के लोकांत में पृथ्वी में प्रवेश अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + . प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी... mmarnmarnamaran Jain Education n ational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600254
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_chandrapragnapti
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy