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________________ विद्यारत्न चतुर्थोऽ महानिधी धिकारः४ लाभालाभं भविष्यन्तम् , शुभाशुभं जयाजयम् । जीवितं मरणं चैव, सुभिक्षं क्षेममेव च॥५॥ वर्षावर्ष भयं भीति--वर्जितं सुखदासुखम् । लगित्वा कर्णयो देंवि, सर्वमाख्याति निश्चितम् ॥ ६ ॥ भाषा-मंत्रवादी कहतेहै. प्रणव-ॐ, माया-हीं, लाह्यापलक्ष्मीके साथ, वायुवीज-स्वा. शुन्य-हा मंत्रोद्धार ॐ ही लाह्वापलक्ष्मीस्वाहा इसमंत्रको चमेलीके ताजे फुलोंसे १०००० दशहजार जाप १३५ ऐसे दिनोमें करे फिर दशांश आहुति देनेसे मंत्रसिद्ध होताहै. कार्यकाले दुधचावलसे एकासन करके १०८ जापकरके मौन होकर जमीनपर शयनकरे, तो लाभालाभ, भुतभविष्य, वर्तमान, शुभाशुभ, जीवित मरण, सुभिक्ष दुर्भिक्ष, वर्षावर्ष, अभय, भिति, सुखदुःख इत्यादि सर्व देवी कर्णमे निसंदेह कह देतीहै. ॐ ही लाह्वापलक्ष्मीच, इवाँ क्ष्वी च कुश्चहंसच।स्वाहाकारं ततोदेयं, मंत्रोयं मुनिभाषितः॥७॥ त्रयोदश सहस्राणि, जातिपूष्पैश्च पुर्वतः । जापोस्य हि विधातव्यः, महासत्वैकशालिभिः ॥८॥ तदनुत्तरसेवायां, दशांशे होमतस्तथा । मंत्रोयं साध्यतांनेयः, संयमारामगामिभिः ॥ ९ ॥ विधिः पुनरयंचात्र, मंत्रस्यास्य प्रसाधने । स्नास्वा विलिप्यसर्वांगं, सदशश्वेतवस्त्रभृत ॥ १०॥ खयंचोपोषितोभूत्वा, कन्याभोजनदायकः । कुमारीगुरुपूज्यानां, वस्त्रदान पुरस्सरम् ॥११॥ JainEducar For Personal & Private Use Only
SR No.600214
Book TitleVidyaratna Mahanidhi
Original Sutra AuthorBhadraguptasuri
Author
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1936
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size5 MB
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