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________________ श्री प्रशमरति प्रकरणम् नहि भापतां संयमर्नु पालन करता रहेवू. ६ जे विषयो छे ते संसार छ भने संसार छे ते विषयो के तेमा जे मुनि थइने अगुप्त (अनिग्रहित ) रहे छे ते प्रभुनी आज्ञाथी बहार वर्ते छे भने वारंवार विषयासक्त बनी असंयमने भाचरी घरवास मांडी रहे थे. ७ आ वातने सर्व पापथी अलग रहेनार तथा निर्दोष चारित्र पाळवामां यत्नवंत अने अप्रमादी एवा वीर पुरुषोए बराबर समजीने परिषहादिकने हठावी केवळज्ञान पामीने साचात् देखेली छे. अतः आत्मार्थी जनोए प्रमाद तजी निर्मळ भावथी चारित्रनुं सेवन कर, युक्त छे. अध्ययन बीजं. (लोक विजय) १भायु अत्यंत अल्प छे. दरम्यान जरा अवस्था प्रावतां इंद्रियवळ घटतुं जाय छे; वृद्ध भवस्थाने जोइने प्राणी | दिग्मूढ बनी जाय छे. एम समजीने अवसर पामी बुद्धिमान पुरुष संयमने माटे तरत उजमाळ थइ जाय छ, एक घडी पण प्रमाद करता नथी, केमके आयुष भने यौवन धसाराबंध चान्यां जाय छ, पण मणसमजु प्राणीमो तो प्रमादवंत छता असंयमवडे छ कायनो कुटोज करता रहे छे. २ ज्यां सुधी इंद्रियनी (विज्ञान) शक्ति मंद पडी नथी त्यांसुधी चीक्ट राखीने आत्मार्थ साधी लेवो. ३ बुद्धिवंते संयममा थती अरति दूर करवी, जेथी शीघ्र स्व मोक्ष थाय छे. ॥३५॥ Jain Education For Personal Private Use Only 1 HDainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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