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________________ प्रशमरति प्रकरणम् ॥१०८॥ (विलेपन ), मान्य (पुष्प ), अधिवास, धूप अने प्रदीप आदिक द्रव्योबडे पूजा करे छे. तथा प्रशमरतिनो नित्य अभिलापी होइ, जिन, गुरु अने साधुजनोने वंदन करवामां अत्यंत रसीक छतो अंत अवसरे सुविशुद्ध संलेखना त्रिकरणयोगे आराधी सौधर्मादि देवलोकने विषे इंद्रपणुं अथवा सामानिक देवपणुं अथवा एवुज चीजें उदारस्थान पामे छे. ते महानुभाव त्यां तदनुकूळ सुख अनुभवी पुनः मनुष्यलोकमा अवतरी दुर्लभ एवी सवगुणसंपदाने पामी आठ भवमां शुद्ध निर्मळ थइ नियमा सिद्धि-पदने पामे छे. ३०२-३०८. विवेचन-आ मनुष्यलोकमां जिनेश्वरभगवाने भाषेला आगम-प्रवचन संबंधी अर्थनो भली रीते अर्थावबोध मेळवी जेणे तेनो आश्रय करेलो छ, निःशंकपणे सत्यतानो निर्धार कर्यो के के आ जिनप्रवचन ज भवसागरनो पार पमाडनार छे तथा तत्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यक्त्व, उत्तरगुणरूप शील, प्राणातिपातादि विरमणरुप अणुव्रत, अने अनित्यादिक द्वादश भावनावडे जेनुं मन भावित-वासित रहे छे, एवो गृहस्थ श्रावक स्थूल-बादर प्राणी-त्रस जीवोनी, नहि के सूक्ष्म पृथ्वीकायादि जीवोनी हिंसाथी विरमण, अथवा स्थूल-संकल्प जनित, नहि के आरंभजनित हिंसाथी विरमण एटले के हुं प्रा जीवने सारं-नाश करूं एवो संकल्प करीने वध करवाथी विरमवू-वध न करवो ते स्थूल प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम अणुव्रत, कन्या, पशु, भूमि संबंधी तथा थापणमोसो ने कूटलेख-कूटसाक्षी संबंधी मोटका जूठथी विरमवू ते बीजुं अणुव्रत, जे वस्तुनुं हरण करतां चोर कहेवाय एवी चोरी न करवी ते त्रीजुं, परस्त्रीगमन तथा वेश्यागमननो त्याग करचो अने स्वनीमांज संतोष रानवारूप चतुर्थ, इष्ट विषयादिकमां प्रीति अने अनिष्ट-प्रतपा १०८॥ Jain Education For Personal & Private Use Only inelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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