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प्रशमरति प्रकरणम् ॥१.३॥
विवेचन-जे समयमा सिद्ध थया तेने आदि करी सादिक, फरी क्षय थवानुं नथी तेथी अनंत, कोइ पण उपमा घटी शके नहिं तेथी अनुपम अने कोइ पण जातनी व्याबाधा-दुःख पीडा रहित होवाथी अन्याबाध एटले रोग आतंकादिक द्वंद्व रहित एवा उत्तम सुखने प्राप्त थयेल केवळ एटले क्षायिक, अपौद्गलिक पुद्गल रहित, अमूर्त अने असहाय एटले जेमां बीजानी सहायनी अपेक्षाज नथी एवा संपूर्ण अने समर्थ सम्यक्त्व, केवळज्ञान अने केवळदर्शन एज जेनो स्वभाव के एवा परमात्मा त्यां [ सिद्धचेत्रमा ] मुक्त थाय छे. २८६
केटलाएकना मते चेतनानो सर्वथा अभाव तेज मोक्ष छे तेनुं निराकरण करवा कहे छ:मुक्तः सन्नाभावः स्वालक्षण्यात्स्वतो ऽर्थसिद्धेश्च । भावान्तरसंक्रान्तेः सर्वज्ञाज्ञोपदेशाच ॥ २६ ॥ . अर्थ-मुक्त थएला एवा जीवनो, स्वलक्षणपणाथी अने स्वतः अर्थ सिद्ध थवाथी, भावान्तरमा संक्रांत थवाथी भने । सर्वज्ञप्रणीत आगमना उपदेश प्रामाण्यथी सर्वथा अभाव नथी. २६०
विवेचन-आठे कर्मथी मुक्त सिद्धात्मा जे चेतना स्वभाव अथवा ज्ञानदर्शन उपयोग लक्षणवान् छ, तेनों सर्वथा निरन्वय नाश एटले अभावज थइ जाय, ए दुःसाध्य-कोइ रीते साबीत न थइ शके एवं छे. तेमां हेतु भने दृष्टांत मा रीते घटे छे. परिणामीपणुं होवाथी ए हेतु छ भने प्रदीपशिखानी पेरे ए दृष्टांत छ. ते प्रदीप (दीपक) ना पुद्गलों काजळ आदि आकारे प्रगटे छे एटले ते परिणामान्तरने पामे छे-सर्वथा नाश पामी जता नथी. ए वात प्रत्यक्षपणाथी
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