SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशमरति प्रकरणम् १०२।। * सर्वगतियोग्य संसारमलकरणानि सर्वभावनि । औदारिकतैजसकाणानि सम्मिना त्यतया ॥२८६ ।। देहत्रयनिमुक्तः प्राप्यर्जुश्रेणिवीतिमस्पर्शाम् । समयेनैकेनाविग्रहेण गत्वार्ध्वगतिमप्रतिघः ॥ २८७॥ सिद्धितेने शिमले जन्मजरामरणरोगनिर्मुक्तः। लोकायगतः सिध्यति सातारेणोपयोगन ॥ २८८॥ अर्थ--सर्व गतियोग्य, संसारना मूळकारणरूप, सर्वत्र संभवता औदारिक, तैजय अने कार्मण (शरीर ) नो सवथा त्याग करीने त्रणे देहथी निर्मुक्त थया सता, अस्पर्शमान गतिवाळी समश्रेणिने पामीने, एक समये अवक्रगतिबडे अप्रतिहतपणे उर्ध्वगतिने पामी, निर्मळ सिद्धक्षेत्रने विषे, जन्म जरा मरण अने रोगथी सर्वथा रहित एवा लोकना अग्र भागे पहोंची साकार ( ज्ञान ) उपयोगे सिद्ध थाय छे. २८६-२८८ विवेचन-नरक, तियंच, मनुष्य अने देवता रूप सर्व गति योग्य अने संसार परिभ्रमण करवामां निमित्तरूप तेमज नरकादिक गतिमां सर्वत्र थनार-होनार एवा औदारिक. तैजस अने कामण एवणे शरीरने सर्वथा तजीने [ अत्रे आपेला विशेषणोनी सार्थकता आ रीते के के औदारिकादि शरीर वगर सर्व गति प्राप्त थती नथी अने ते सर्वत्र नरकादिक गतिमा होय छे. क्वचित् औदारिकने बदले वैक्रिय पण होय छे. तेने सर्व स्वरूपे तजी, मुक्ति पामनारने तो निश्चेज औदारिक, तेजस अने कार्मण एज त्रण शरीर होय छे, तेनाथी सर्वथा मुक्त बनी ) ऋजुश्रेणिनी गतिने पामी, केवी गति ? तो के सकळ कर्म क्षय समयथी अनेरा बीजा समयोने न स्पर्शे तेमज स्वअवगाह प्रदेशथी बीजा प्रदेशने पण न स्पर्श एवी amananews ॥१०२॥ Jain Education inte For Personal Private Use Only Alainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy