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Jain Education I
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मासे थे; धूळना ढेफांनी पेरे कंचननी इच्छा पण जेणे तजी छे, अर्थात् जेम धूळनां ढेफांनी इच्छा नहि तेम कंचननी इच्छा पण जेने नथी; एटले धूळनी जेम कंचन पण जेणे तजी दीधुं छे: वाचनादि पांच प्रकारना स्वाध्यायमा अने धर्मादि रुडा ध्यानमां जेनो उपयोग एक तार वर्ते छे; तथा सकळ प्रमाद पटलथी जे अत्यंत दूर रहे थे मनना परिणामनी निर्मळता थवाथी, प्रमादवाळा मन, वचन, कायाना दंडथी मूकातां यावत् विशुद्धयमान थतां प्रधानभूत-उमदा - उंची प्रकारनी चारित्रशुद्धिने तेमज तैजस, पद्म अने शुक्ललेश्या पैकी कोइपण प्रकृष्ट लेश्याशुद्धिने पामीने ते जातभद्र - कल्याणवंतने त्यारबाद प्रथम नहि प्राप्त थयेलुं एवं अपूर्वकरण ( आठ गुणठाएं ) जे पूर्वकर्मनो क्षय करवाने समर्थ छे तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अने अंतरायरूप चार घातिकर्मना देशचयथी उत्पन्न थाय अ मषैषधि प्रमुख अनेक ऋद्धि संपदाभो, अवधिज्ञानादि विशेषो तथा तृणाग्र खंचवा मात्रथी सुवर्ण वृष्टि करवा प्रमुख विभवो जेमां विद्यमान होय छे ते प्रगट थाय छे. २४६ - २५४
सातर्द्धिरसेष्वगुरुः सुप्राप्यर्द्धिविभूतिमसुलभामन्यैः । सक्तः प्रशमरतिसुखे न भजति तस्यां मुनिःसङ्गम् २५५ अर्थ – रसगाव, ऋद्धिगारव अने शातागारवने विषे नहिलोमायेला ( अमूढ ) अने अन्यने असुलभ एवी लब्धि आदिकनी संपदा पामीने प्रशमरति सुखमां आसक्त थयेला एवा मुनि ते लब्धि श्रादिक संपदामां मोइ पामता नथी. २५५ विवेचन--पछी साता, ऋद्धि अने रस (गौरव) विषे आदर नहि करनार एवा ते मुनि अन्यने प्राप्त थवी दुर्लभ
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