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प्रशमरति प्रकरणम्
॥ ५७॥
हवे शास्त्रकार लोकभावना संबंधी स्वरूप जणावे छे:लोकस्यास्तिर्यग्विचिन्तयेदूर्ध्वमपि च बाहल्यम् । सर्वत्र जन्ममरणे रूपिद्रव्योपयोगांश्च ॥ १६० ॥
भावार्थ-उर्ध्व, अधो अने तीच्छा लोकनुं स्वरूप, तेनो विस्तार, सर्वत्र जन्म मरणरूपी द्रव्य अने उपयोगर्नु चितवन करवू. १६०
विवेचन-लोक ए जीव अने अजीव (धर्मास्तिकायादि)नुं आधार क्षेत्र छे. तेनुं उर्व अधो ने तीी लोकविभागे चिन्तवन करवू अने तेनो विस्तार चिन्तववो. अधोलोक विस्तारपणे सात रज्जु प्रमाण छे. तिच्छोलोक एक रज्जु प्रमाण छे अने उर्ध्व, ब्रह्मलोके पांच रज्जु प्रमाण अने ठेठ छेडे एक रज्जु प्रमाण विस्तारे छे. सर्व मळीने उंचो १४ रज्जु प्रमाण छ. उक्त लोकमा श्रा जीवे सर्वत्र जन्म मरण कर्या छे. एक तिलतुष मात्र पण लोकाकाश भाग बाकी (खाली) रह्यो नथी के ज्यां मा जीवे जन्म मरण करेला न होय. तेमज परमाणुथी मांडी अनंतानंत परमाणुना स्कंध पर्यन्त जे कोइ रूपी द्रव्यो छे ते सर्वेनो मन, वचन, काया, आहार, उश्वास अने निश्वासादि रूपे परिभोग आ जीवे अनादि संसार पर्यटन करता कर्यो छे. तेम छतां ए तृप्ति पाम्यो नथी (ए भारे आश्चर्यनी वात के) एम प्रतिक्षण चिन्तय. ए भावनाथी वैराग्य जागे छ अने अप्रतिबद्धपणे मोक्षमार्गमा प्रवर्ती शकाय छे. १६०
हवे शास्त्रकार स्वाख्यात धर्मभावनानुं स्वरूप प्रतिपादन करे छे:
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