________________
श्रीरा
४
॥
रास रच्यो श्रीपालनो, तेदने बीजे खंभे रे॥
प्रथम ढाल विनये कदी, धर्म उदय थिति ममे रे ॥ क्रीडा० ॥१२॥ अर्थ-ए श्रीपालना रासनी रचना करी, तेनी वीजा खंडने विषे पहेली ढाल श्रीविनय विजय | उपाध्यायजीए कही. कवीश्वर कहे के के हे नव्यजीवो! जे वारे स्थितिनो परिपाक थाय, ते वारे | ते स्थितिपरिपाकना उदयथी जीव धर्ममां मंडे एटले जोडाय, धर्ममा प्रवर्ते ॥ १२॥
॥दोहा ॥ हवे मयणा इम विनवे, तुमशुं अविदड नेद ॥ अलगी दाण एक नवि रहूं, जिहां गया तिहां देह ॥१॥ अग्नि सदेतां सोदिलो, विरद दोदिलो
होय ॥ कंत विगेही कामिनी, जलण जलंती जोय ॥२॥ अर्थ-हवे मयणासुंदरी श्रावीने आवी रीते विनंति करे ने जे हे स्वामिन् ! तमारी साथे मारे अविचल स्नेह , माटे एक दणमात्र पण हुँ तमाराथी अलगी रहुं नहीं. जेम जे स्थानके बाया| होय ते स्थानके शरीर पण होय. ए दृष्टांते जिहां तमारो देह हशे, तिहांज तमारा देहनी बायारूप ढुं रहीश ॥यतः॥ यत्र त्वं तत्र मे प्राणाः, शरीरं मम केवलं ॥धारितं प्रेमयोगेन, वारिणा : कमलं यथा ॥१॥१॥ हे खामिन् ! स्त्रीने अग्नि सहन करवो पडे ते सुलन बे, परंतु खामीनो | विरह खमवो पडे ते महा दोहिलो होय . कंत जे जरि तेथी विडोह पामेली एवी जे ( कामिनी के०) स्त्री ते ( जलण जलंती के०) वलता अग्नि सरखी (जोय के०) जोवी, एटले अग्निनी परे बलती। होय एवी जाणवी ॥ यतः॥ गिरिको गिरनो विषय मरनो, वरनो सखि पावकको जरनो॥दरिया परनो हरिसे लरनो, श्रसिधार नलो जियको हरनो॥ करीशु अरनो धरनी गिरनो, हरसें करनो रनमें जरनो॥ कवि मान कहे सवही सुनलो, पण एक बुरो पियु बीबरनो ॥१॥ इति ॥२॥
॥४०॥
-
-
Sain Education Intematonal
For Personal and Private Use Only
wwwinelibrary.org