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सुगुण वत्सो ! तमे मारी एक समस्या पूर्ण करजो, जे पुण्य थकी था अमुक वस्तु पामीए एटले पुण्यश्री शी शी वस्तु पामीए ते कहो ॥७॥
सुरसुंदरी कहे चातुरी रे, धन यौवन वर देव ॥ मनवल्लन मेलावडो रे, पुण्ये पामीजे एद रे॥ नृपः॥॥ मयणा कहे मति न्यायनी रे, शीलशुं निर्मल देह ॥ संगति गुरु गुणवंतनी रे, पुण्ये पामीजे एह रे॥नृप०॥ ॥ ए॥णे अवसर नूपति नणे रे, आणी मन अनिमान ॥ हुँ तूगे तुम नपरे रे, देखें वांबित दान रे ॥व ॥ १०॥ हुँ निर्धनने धन देखें रे, करुं रंकने राय ॥ लोक सकल सुख भोगवे रे, पामी मुज पसाय
रे॥व०॥१२॥ अर्थ-एवं राजानुं वचन सांजलीने प्रथम तो चतुरपणाथी सुरसुंदरी कहे जे के हे पिताजी ! एक धन, बीजु यौवन, त्रीजो (वर के० ) प्रधान सुंदर एवो ( देह के०) शरीर तथा चोथो | मनववन जे जरि तेनो मिलाप, एटलां वानां पुण्य थकी पामीए ॥ ७॥ हवे मयणासुंदरी उत्तर कहे जे के हे पिताजी ! एक तो न्यायनी (मति के०) बुद्धि, बीजुं शीले करीने निर्मल (देह के०) शरीर, त्रीजी रुमा गुणवंत गुरुनी संगति एटले समागम, ए वस्तु पुण्यना योगे
पामीए ॥ ए ॥ एवा अवसरने विषे राजा मनमां अनिमान आणीने (जणे के० ) कहे जे जे हुँ हातमारा उपर संतुष्ट थयो बुं, माटे तमोने मनोवांछित दान श्रापुं ॥ १० ॥ हुँ केवो ढुं ? तो के
जे निर्धन पुरुष होय तेने धन आपीने धनवंत करु, तथा रंकने राजा करूं, अने सर्व लोक जे सुख |जोगवे , ते मारो पसाय पामीने जोगवे ने ॥ ११॥
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