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जेमनी साथे ठे एवा विद्याचारण मुनि श्राकाशश्री नीचे उतरता तिहां श्राव्या. तेमणे प्रथम तो गजारा पागल ज श्रीजिनने वांदीने श्रीजगत्त्रयना नाथने थुण्या, एटले स्तव्या ॥ १० ॥ पड़ी ।। देवोए प्रधान सिंहासन रच्यु, ते सिंहासन उपर मुनिराज श्रावी वेग. तिहां जविक जीवना श्रवण | जे कान, तेने सुखनी देनारी एवी देशना मधुर ध्वनिए एटले मीठा शब्दे करी देवा लाग्या॥११॥
नव पद महिमा तिहां वरणवे जी, सेवो नविक सिहचक रे॥ इह नव परनव लदीए एदथी जी, लीला लदेर अथक्क रे॥ कुंवर ॥१२॥ उख दोहग सवि उपशमे जी, पग पग पामे शदि रसाल रे ॥ए नव पद आराधतां जी, जिम जग कुंअर श्रीपाल रे॥ कुंवर॥१३॥ प्रेमे सयल पूरे परषदा जी, ते कोण कुंअर श्रीपाल रे॥ मुनिवर तव धुरथी कहे जी,
तेहy चरित्र रसाल रे॥ कुंवर ॥१४॥ अर्थ-हवे मुनिराज तिहां देशना मांहे नव पदना महात्म्यनुं वर्णन करतां थकाज कहे | के जो जो नव्यो ! हे महानुनावो ! तमे जे थकी था जव अने परनवने विषे अथाग एटले पार विनानी जेनो थाग नहीं एवी लीलानी लहेर (लहीए के) पामीए, एवा श्रीसिद्धचक्र नगवानने सेवो. इहां श्रीअरिहंतादिक नव पदना समुदायने सिद्धचक्र कहीए, जे माटे श्रीजिनेश्वरे कहेला देवतत्व, गुरुतत्त्व अने धर्मतत्त्व, ए त्रणे तत्व आराधवा योग्य , ते त्रणे तत्व ए नव पदने विषेज दे, तेमां एक श्रीअरिहंत अने वीजा सिह नगवान् ए बे पद देवतत्वरूप जाणवां तथा एक आचार्य, वीजा उपाध्याय अने त्रीजा साधु, ए त्रण पद गुरुतत्त्वरूप जाणवां, तथा एक दर्शन, बीनुं ज्ञान, त्रीजु चारित्र अने चोथु तप, ए चार पद धर्मतत्त्वरूप जाणवां. एमत्रण तत्त्वना उत्तर नेद नव थया. तेज नव पदने तमे परम नक्तिए करी थाराधी
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