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रत्नांगद मोगं रे, शैव जैन मुनिना गुण दीग रे ॥ कोमी वरस अर्जित तप बाले रे, हिंसा क्रोध वन्हि मुनि टाले रे ॥ १५ ॥ देवमायायें बहु नपसर्गा रे, आपे मुनि कोमे कर्मवर्गा रे ॥ ज्येष्ट नक्तिथी किमही न चुके रे, लीधो पण सापुरष न मूके रे ॥ १६ ॥ मिथ्यात्व मोहनीनो कय कीधो रे, नपशम योगें समकित लीधो रे ॥ हेमांगद थयो धर्मनो रागी रे, मिथ्यात्वी उपर रुचि नागी रे ॥ १७ ॥ प्रत्यक्ष अ सुर मुनि पाय लागे रे, समतासागर तुज गुण जागे रे ॥ सुरपति ताहारी ख्याति वधारी रे, अमे परीक्ष्यो तुं गुणधारी रे ॥ १७ ॥ श्म कही पोहोता ते निजगमें रे, मुनि वात्सल्य करे हित कामें रे ॥ तीर्थकत्कर्म बांधी वैरागीरे, सुरथयो शुकें अति वमन्नागी रे ॥ १५ ॥ तिहाथी चवी महाविदेह मजारी रे, पद्मोत्तर लहेसे अवतारी रे॥श्रीअ-IA रिहंतनी पदवी पामी रे, मुगति तणां सुख लहेशे स्वामी रे ॥ २० ॥ श्म सांजली वृक्ष वात्सल्य की रे, पद्मोतरनी परें फल लीजें रे॥ साधुन्नक्तिथी बहुगुण लहियें रे, कहे जिनहर्ष सदा गहगहीयें रे॥१॥ इति पंचम स्थानके पद्मोत्तर नृप कथा समाप्ता॥
अथ षष्ट स्थानके महेंपालनृपकथा प्रारंनः॥
॥दोहा॥ हवे उठा थानक तणो, सान्नलजो अधिकार ॥ पाठक आचार्यादि सहु, बहुश्रुत जे अणगार॥१॥ विधिशुं वात्सल्य कीजीयें, तिहां श्रुतना बे नेद ॥ बशबद्ध वखाणिया, मनधरी टालो खेद ॥२॥ श्रुत उवादस अंगजे, ब कहीजें तेह ॥ महानिशीथ निशीथ वलि, नेद अब लहेह ॥ ३ ॥ जे श्रुत गुरुपासें नणे, विधिशुं योग वहेय ॥ उद्देश समुद्देश आगन्या, पूर्वक विनय करेय ॥४॥ कालिक नत्कालिक वली, वहु सूत्रार्थ बेनेद ॥ अंग अनंग प्रविष्ट मुख, कह्या अनेक सुन्नेद ॥५॥ते
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