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तिहांथी चवी विदेह खेत्रमां, नामें जगदानंदी रे ॥ नावि तीर्थंकर हितवत्सल, त्रिभुवन जन आनंदी रे || सां० ॥ ११७ ॥ हारमना प्रनुगणधर थाशे, तेपण मुक्ति जाशे रे ॥ अक्षय अव्यय था नक लदेशे, लोकाग्रें जइ रहेशे रे || सां० ॥ २० ॥ एम तृतीयपद जक्ति तयुं फल, सांजली जिनदत्तकेरो रे । भक्ति करो प्रवचननी कहे जिन, हर्ष सुमतिनें प्रेरो रे ॥ सां० ॥ २१ ॥ इति श्रीहितीयस्थानानंतरं तृतीयस्थान समाप्तम् ॥
॥ अथ चतुर्थ आचार्य पदप्रारंभः ॥ ॥ दोहा ॥
हवे यो स्थानक कहुं, मुक्ति सुसाधन नूत ॥ राजधानी सडु सुखतली, शुद्धधर्मनो दूत ॥ १ ॥ निरवद्य विद्यायें पवित्र, मंत्र सिद्धिनुं बीज ॥ गुरुनी भक्ति विवेकिये, करवी एहीज नीत ॥ २ ॥ जिनवरनी नक्तैकरी, पूर्वखपावे कर्म ॥ नमस्करे प्राचार्यनें, सिद्धिमंत्रादिक धर्म ॥ ३ ॥ द्विधानक्ति छ्यनावथी, तत्र विशुद्ध व्यखेत्र ॥ कालोचित अन्नपान वली, वस्त्रपात्र सुनिहेत ॥ जावसुं कंवलौषध प्रमुख, दान एह व्यक्ति || एपण पुण्योदय जली, थाये अधिकी शक्ति ॥ ५ ॥
ढाल पहेली ॥ क्रीमा करी घरे आवियो । एदेशी ॥
धन सारथवा दीयुं मुनिने दान विशुद्धो रे ॥ पाम्यो समकित निर्मलो, जेहवो सुरनिनो दूधो रे ॥ १ ॥ जक्ति करो श्रीगुरुतली, गुरुनक्तें मुक्ति लहीजें रे || आचारजनें अनुदिनें, सेवे ते जाए कहीजें रे ॥ ज० ॥ || जाव जगति विधिशुं सही, वारु वंदन बार श्रावर्तोरे ॥ देइ तीन प्रदक्षिणा, वारू पातक करे निवर्तो रे ॥ ज० ॥ ३ ॥ गुरुनें करे विश्रामणा, वारू नीर पखाले
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