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| स० ॥ एकदिसि सदु तीरथ आलो, एकदिशि पुंकर गिरि जाणो हो स० ॥ १७ ॥ शेठ विशाख इलनामी, कीधी संघनक्ति मामी हो स० ॥ तिरान्नव देवें दीधो, चिंतामणि रत्न प्रसिद्धो हो स० ॥ ॥ १८ ॥ निर्मल निज श्रातम श्राय, संघ गौरव करे सदाय हो स० ॥ सम्यक्त्व करे शुद्ध धोइ, अरिइंत तपद होइ हो स० ॥ १७ ॥ वली पूर्वजवें गुणवासी, जिनपवयण भक्ति नलासी दो स० ॥ जिनहर्ष जिणंद पाम्यो, यथा संभव सहु शिर नाम्यो हो स० ॥ २० ॥
॥ दोहा ॥
जिनदत्त एवं सांजली, थयो विशेषे नाव ॥ त्रीजूं थानक आदरयुं, गुरुपासे लहि दाव ॥ १ ॥ त्यारपठी बहु नक्तिशुं, ते मुनिवरने श्रेष्टि ॥ शुद्ध कराव्यं पारणुं, जावनगति शुनदृष्टि || २ || निजघरे आव्यो अनुक्रमें, लेइ काफी रिद्धि ॥ सज्जन सह आनंदिया, देखी तास समृद्धि ॥ ३ ॥ संघनक्ति नित साचवे, पोषे उत्तम पात्र ॥ तपस्वी ज्ञानि बालादिनी, सेवा करे सुपात्र ॥ ४ ॥ कल्पे मुनिने तेहवं, वस्त्र पात्र आहार ॥ वहोरावे शुद्ध एषणी, औषध वस्ति विचार ॥ ५ ॥
ढाल पांचमी || होमतवाले साजनां ॥ एदेशी ॥
इनिज शकतें साचवे, संघनक्ति सकल सुख करणी रे | नरक कपाटनी आगली, वली मुक्ति | महेल नीसरणी रे ॥ इम० ॥ १ ॥ श्री जिनवर प्रणमी करी, वंदे मुनिवर आचारी रे ॥ सुणे सढ़गुरु देशना, शुं कहे देखणा मकारी रे ॥ इम ॥ २ ॥ तीर्थंकरनी संघनी, सूरिनी ऋषि तपकारी रे। नक्ति करचे बहुमान्यता, याये दर्शन शुद्ध विचारी रे ॥ २० ॥ ३ ॥ पोषे मूर्ख कुटुंब, जे दुर्गतिमां पहुचावे रे ॥ धर्मी पोषे संघनें, दुर्गति दुःख दूरे नसावे रे ॥ इम० ॥ ४ ॥ घृतमिश्रित जोजन करी, अज्ञानी ते देह वधारे रे | पंमितते प्रवचन जणी, सुरसुख शिवसुख विस्तारे रे ॥ इम० ॥ ५ ॥
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