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तह धर्म प्रादरियो, वांदी पूरे नृप हित नरीयो॥१६॥ सितणी केम नक्ति करीजें, श्रीगुरु तुमथी नेद लहीजें ॥ सिद्धसिङ्नां नयण न दीसे, पयजिनदर्ष नमुं केम शीसें ॥१७॥
दोहा॥ नयणे दीसे तेहनी, सेवा कीधी जाय ॥ चरणे नमीये तेहने, पूजीज तसु पाय॥१॥ रूप रेख Silकाया नहीं, अगम अगोचर सिद्ध ॥ सेवा पूजा तेहनी, शीपरें जाये कि ॥२॥ गुरु नांखे सुण
राजवी, आत्म निरंजन एह ॥ सिद्धस्वरूपसुं मिश्र करि, निःकषाय जितदेह ॥ ३ ॥ जे ध्यावे| शुझातमा, तेहशुं मन लयलीन ॥ सिद्धस्थानकने विषे, रह्या जेह स्वाधीन ॥ ॥ नमस्करि नावें
करी, पूजा धिा प्रकार ॥ सिइनक्ति तेहने हुवे, घातिकर्म कयकार ॥५॥ त्रिजगनाथ पद संपदा, salअनुक्रमें पामे तेह ॥ सुख अनंतां ते लहे, जेह तणो नहि बेह ॥६॥
ढाल चोथी ॥ वैरागी थयो । ए देशी ॥ al एहवू सान्नली नूपतीरे, धरी मनमें सुविचार ॥ सिइनक्ति पद गुरुकन्हे रे; कीधो अंगीकार रे ॥ १ ॥ धन्यधन्य ते नरा, आराधे जिनधर्मो रे ॥ धर्मे सुख मले, नांजे नवन्नय नर्मो रे ॥ धन्य० ॥ २ ॥ राजा आव्यो निजघरे रे, प्रणमी मुनिना पाय ॥ सिध्यान बहुमानशुं रे, करे।
सथिर चित्त लायो रे ॥ध ॥३॥ स्थान पवित्रजे सिद्धनां रे. समेतशिखर परमुख ॥ यात्रा Salकरे शुरुआतमा रे. टालवा नव दुख्खो रे ॥ध ॥४॥ पूजे जेहनें जग सहू रे, शत्रुजय सिद्ध
खेत ॥ मंत्रीशुं नृप आवीयो रे, यात्रा धरी बहुहेतो रे ॥ ध० ॥ ५ ॥ नमोसिशणं पद जपें रे, राय सदा तेणे गम ॥ संन्नारि सहु सिस्ने रे, क्रूर करम कय कामो रे ॥ध ॥ ६ ॥ सिद्धन्नक्ति । करता थका रे, धरतां निर्मल ध्यान ॥ करम तीर्थकर बांधियु रे, शिवसुख केरुं निधानो रे ॥ध ॥
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