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॥गु॥ समण परुण विध्वंसणा रे, तनु लक्षण निरवाण ॥ गु०॥ प्रा० ॥ ६ ॥ जाली धर्म करे जिकेरे, ते लहे शिवसुख गम ॥ गु० ॥ धर्म विना ए जीवने रे, कोय न धावे काम ॥ | ॥ ० ॥ ७ ॥ जीवतली हिंसा तजो रे, अलिक वचन परिहार ॥ गु० ॥ चोरी न कीजे सुपनमें रे, मैथुन दूर निवार || गु० ॥ ० ॥ ८ ॥ परिग्रहनी ममता तजो रे, निशि जोजन करो दूर | गु० ॥ पंच महाव्रत पालते रे, लहिये सुजस सनूर | गु०॥ ० ॥ ए ॥ गौज शेव ते देशना रे, सुशि बृज्यो ततकाल ॥ गु० ॥ जाने पूर्वी तदा रे, ले चारित्र विशाल ॥ | गु० ॥ श्र० ||१०|| सिंह परे व्रत यादरे रे, पाले मृगपति जेम ॥ गु० ॥ प्रणसरा आराधन करी रे, सुर पद पाम्यो खेम ॥ ० ॥ ० ॥ ११ ॥ प्रथम सुरालये रूपन्यो रे, |मान ॥ गु० ॥ सागर दोयने प्रानखे रे, जोगवे जोग प्रधान ॥ गु० ॥० ॥ १२॥ पुत्र स्नेह | प्रेरयो को रे, गौन शेग्नो जीव ॥ गु० ॥ पेटी नवाणुं प्रतिदिन रे, प्रगट करे ते तीव ||०||०||१३|| भूषण वस्त्र जोजन तली रे, वर वधुने परिभोग ॥ गु० ॥ पूरे वंबित नि |त नवा रे, पूरव स्नेह संयोग ॥ ०॥ ॥ १४ ॥ शालिकुमर सुख जोगवे रे, मन चिंतित मनुहार ॥ गु० ॥ पात्र दान फल देखजो रे, हृदाय की नर नार || गु०॥ प्रा० ॥ १५ ॥ यतः ॥ अनुष्टुवृत्तम्. ॥ व्याजेस्याद्विगुणं वित्तं, व्यवसायेचतुर्गुणं ॥ कुषशतगुणैप्रोक्तं, पात्रे
इंस
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