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श्रीधर्मरत्न प्रकरणम् ॥१४॥
परगृहपवेशवर्जनरूप शीलम्
तम्मेहरो निहिं ठविय, तंबकलसे तओ गहिउकामो । उज्झावह इंगाले, तं कणयं नियइ धणमित्तो ॥४४॥ किमिणं उज्झाविज्जइ, इय पुढे तेण मेहरो भणइ । कणगं ति कहिय पिउणा, पवंचिया इच्चिरं अम्हे ॥४५॥ संपइ उज्झावेमो, एए इंगालए निएऊण । तो सेट्ठी सुद्धमणो, भणेइ भो भद्द ! सुवण्णमिणं ॥४६॥ जंपेइ मेहरो दढविमूढ ! किं बाउलो सि ? मत्तो सि । धत्तूरिओ ? सि अहवा, सव्वं सुण्णं दरिदस्स ॥ ४७॥ जइ कणगमिणं ता मज्झ, दाउ गुलतिल्लमाइयं किंपि । गिण्हसु इमं तुम चिय, तह चेव करेइ सिट्ठी वि ॥४८॥ तं खिविउ नियजाणे, सगिहे पत्तो नमित्तु जिणबिंब । (ग्रंथानम्-४४००)जा संभालइ ता तीससहसमाणं तयं जायं ॥४९॥ तेणं धम्मपरेणं, अन्नपि समज्जियं बहुं दविणं । जाओ जणप्पवाओ, उअह अहो! धम्ममाहप्पं ॥५०॥ इत्तो तत्थेव पुरे, सुमित्तनामो वसेइ महइन्भो । रयणावलिं स विरएइ, कोडिमुल्लेहि रयणेहिं ॥५१॥ केणवि गुरुकज्जेणं, तस्सवि चिन्ताठियस्स पासम्मि । एगागी संपत्तो, धणमित्तो तह निसन्नो य ॥५२॥ उचियालावं सह तेण, काउ इन्भो पओयणवसेण । पत्तो गिहमझे काउ, कज्जमह एइ जा तत्थ ॥ ५३ ॥ ता रयणावलिमनिएउ, भणइ जा विरइङ मए मुक्का । सा कत्थ गया रयणावलि ? ति भो कहसु धणमित्त ! ॥५४॥ न तुमं ममं च मुत्तुं, कोवि इहासी तओ तुमे चेव । सा गहिया अप्पसु तं, मा चिरकालं विलंबेसु ॥५५॥ तो चिंतइ धणमित्तो, अहह अहो ? कम्मविलसियं नियह । जं अकएवि य दोसे, इय वयणिज्जाई लब्भंति ॥५६॥ इत्तु चिय पडिसिद्धं, परगिहगमणं जिणेहि सड्डाणं । जं परगिहगमणाओ, कलंकमाई जियाण धुवं ॥ ५७॥
तत्र धनमिप्रचरित्रम् ॥१४॥
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