SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्य० ॥ ८४ ॥ ॥ २३५ ॥ तया पुत्थहिट्ठा, सुवण्णथालं कचोलयसणाहं । ठावेइ निवो मा पुण, एस रसो जाउ अन्नत्थ ॥ २३६ ॥ सालंकारा लक्खणछंदजुया महरसा सुवन्नसुई । कस्स न हरेइ हिययं ?, कद्दुत्तमा तरुणरमणिव ॥ २३७ ॥ तीसे विचित्तकवियाचित्तियचित्तो नराहिवो भणइ । पंडिय ! इह मह भणियं, कुणेसु मुंचेसु कुवियप्पं ॥ २३८ ॥ मं इह कहाहिरायं, विणीयनयरीपर्यमि उज्जेणिं । सक्कावयारठाणे, महकालं जड़ निवेसेसि ॥ २३९ ॥ ता तुह गरुयं माणं, धणं च मणइच्छियं पयच्छेमि । इय भणिरे भोयनिवे, धणपालो चिंतए एवं ॥ २४० ॥ जं मह जिणपयपंकयआराहणओ न होइ मणइटुं । तेणं नहु मह कजं, इय विप्पो रायमक्खिवइ || २४१ ॥ जह रंक - वासवाणं, जह जुरिंगण सहस्सकिरणाणं । जह सरिसवमेरूणं, जह छिलरखीरसिंधूणं ॥ २४२ ॥ जह धत्तूर सुरेसरतरूण जह कायदेवरयणाणं । तह तुह तेसिं अंतरमत्थि भणतो पढइ एवं ॥ २४३ ॥ दोमुहय निरक्खर लोहमइयनाराय ! कित्तियं भणिमो ? । गुंजाहिं समं कणयं, तुरंतु न गओऽसि पायालं ॥ २४४ ॥ इय नियनिंदादारुणवयणकसाए हरिव आहणिओ । कोवायंविरनित्तो, मूलपई खिवइ सो दहणे ॥ २४५ ॥ अह महनित्रेय - परो, आवेउं सगिहपच्छिमे भागे । जुन्नयमंचयपडिओ, धणपालो चिंतए एवं ॥ २४६ ॥ पुणरवि कहमेईए कहाइ कवणं करिस्समेरिसयं ? । हा कह दुट्ठनिवेणं, खेयसमुद्दमि पक्खित्तो ॥ २४७ ॥ नीसासे दीहरए, मुंचंतो चत्तअवरवावारो । तो तिलयमंजरीए, दिट्ठो पुट्ठो य तत्थ पिया ॥ २४८ ॥ तेणवि तीइ सुयाए, पुरओ दुक्खस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only स० टी० 11 68 11 www.jainelibrary.org
SR No.600143
Book TitleSamykatva Saptati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1916
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy