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________________ किसी शास्त्रसम्बन्धिनी नवी प्ररूपणा कुर्णि न करवी ३॥ तथा दिगम्बरसम्बधि चैत्य १ केवल श्राद्धप्रतिष्ठितचैत्य २ द्रव्यलिङ्गीनि द्रव्यइं निष्पन्नचैत्य ३ ए त्रिण्यिं चैत्यविना बीजां सघलाइ चैत्य वांदवा पूजवा योग्य जाणवां, ए वातनी शङ्का न करवी ४॥ तथा स्वपक्षीना घरनी विषई पूर्वोक्तत्रिणनी अवन्दनीक प्रतिमा हुइ ते साधुनि वासक्षेपि वांदवा पूजवा योग्य थाई ५॥ तथा साधुनी प्रतिष्ठा शास्त्रिं छइ ६ ॥ तथा साधर्मिक वात्सल्य करतां स्वजनादिक सम्बन्धभणी कदाचित्परपक्षीनि जिमवा तेडइ तु ते माटिं साहमिवत्सल फोक न थाई ७ ॥ तथा शास्त्रोक्त देशवि. संवादीनिह्नव सात सर्वविसंवादीनिहव एक ए टाली बीना कुणनि निह्नव न कहिq ८॥ तथा परपक्षी सङ्घाति चर्चानि उदीरणा कुणिं न करवी परपक्षी कोई उदीरणा करइ तु शास्त्रनइ अनुसारि उत्तर देवो, पणि क्लेश वाधइ तिम न करवू९॥ तथा-श्रीविनयदानसूरिं बहुजनसमाक्षं जलशरण कीधु जे उत्सूत्रकन्दकुद्दालग्रन्थ ते तथा ते माहिल असंमतअर्थ बीजा कोइ शास्त्रमाहिं आण्यु हुइ तु ते अर्थ तिहां अप्रमाण जाणवु १०॥ तथा स्वपक्षीय. सानि अयोगि परपक्षीयसार्थि यात्राकर्या मार्टि यात्रा फोक न थाइ ११ ॥ तथा-पूर्वाचार्यनि बारइ जे परपक्षीकृत स्तुतिस्तोत्रादिक कहवातां ते कहतां कुणि ना न कहिवी ॥ १२ ॥ ए बोलथी कोई अन्यथा प्ररूपइ तेहनइं गुरुनो तथा संघनो ठबको सही ॥ अत्र मतानि श्रीविजयसेनसरिमतम्, उपाध्यायश्रीविमलहर्षगणिमतम् १ उपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिमतम् २ उपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिमतम् ३ उपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिमतम् ४ उपाध्यायश्रीसोमविजयगणिमतम ५ पन्न्याससहजसागरगणिमतम् ६ पण्डितकान्हर्षिगणिमतम् ७ एतद्द्वादशजल्पपट्टके एवंविधा द्वादश जल्पास्सन्तीति ॥ ५९॥ तथा--राक्षसद्वीपो जम्बूद्वीपेऽस्ति लवणसमुद्रे वा ? स च प्रमाणाङ्गुलेनोत्सेधाङ्गुलेन वा इति प्रश्नोत्रोत्तरं-लवणोदे पयोराशौ, दुर्जयो । | द्युसदामपि । योजनानां सप्तशती, दिक्षु सर्वासु विस्तृतः ॥ ३१ ॥ राक्षसद्वीप इत्यस्ति, सर्वद्वीपशिरोमणिः । तदन्तरे त्रिकूटाद्रि मिनाभौ Jain Educat For Private & Personel Use Only a w.jainelibrary.org
SR No.600113
Book TitlePrashna ratnakarabhidh Shreesen Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhvijay Gani
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1919
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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