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| जयपसिद्धो ॥ ३९ ॥ दाने तपसि शौर्ये च, विज्ञाने विनये नये । विस्मयो हि न कर्त्तव्यो, बहुरत्ना वसुन्धरा ॥ ४० ॥ एत्थंतरंमि तीयवि समुट्टियाए जिणिदपूयत्थं । सच्चविओ सो निययंगचंगिमानिज्जियअणंगो ॥ ४१ ॥ तरसोवरि अणुराओ संजाओ तीऍ तक्खणञ्चैव | अहवा पहाणवत्थुमि कस्स नहु होइ पडिबंधो ? | ॥ ४२ ॥ तह कहवि तीऍ एसो पलोइओ जायमच्छरेणेव । जह पंचसरेणेसा पहया पंचहिवि बाणेहिं ॥ ४३ ॥ मयणसरपेल्लियाइवि इमीऍ लज्जाए ठाविओ अप्पा | कुलबालियाण अहवा एसा अंगुट्ठियाभरणं ॥ ४४ ॥ वरविच्छित्तीए तओ पूयं काउं जिणिंद चंदस्स । नहिरिया जिणभवणा पुणे २ तं पलोयंती ॥४५॥ जिणवंदणकयचित्तो, | सोऽविय काऊण उत्तरासंगं । दाउं पयाहिणतियं जिणनाहं थोउमाढत्तो ॥ ४६ ॥ जय तिहुयण संतावयमयरद्धयग| रुयमाणनिम्महणा ! । जय दूसहरोसानलविज्झावणपर्यंड जलवाह ! ॥ ४७ ॥ जय सुक्कज्झाणामयअवहरियकसाय| विसमविसवेग ! । जय उवसग्गपरीसह पिसायअक्खलियसमचित्त ! ॥ ४८ ॥ जय घाइकम्मतमपडलफेडणुल्लुसियके. वलुज्जोय || जय चउगइगमणभमंत जंतुसंताणकयताण ! ॥ ४९ ॥ जय नमिरसुरासुरमउड कोडितप्पडणम सिणपावीढ ! । जय सेसकम्म कुल सेलदलणवज्जासणि नमो ते ॥ ५० ॥ एवं थोऊण जिणं पूयाइसयं पलोइऊणं च । आपुच्छर्इ
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