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________________ श्रीपञ्चव. ३ गणाणुण्णा परिकर्मणा तपःसत्त्वभावने ॥२९३॥ एएण सो कमेणं डिंभगतक्करसुराइकयमेअंजिणिऊण महासत्तो वहइ भरं निभओ सयलं ॥१३९७ ॥ अह सुत्तभावणं सो एगग्गमणो अणाउलो भयवं । कालपरिमाणहेउं सऽभत्थं सवहा कुणइ ॥ १३९८॥ उस्सासाओ पाणू तओ अ थोवो तओऽविअ मुहुत्तो। एएहिं पोरिसीओ ताहिंपि णिसाइ जाणेइ ॥१३९९॥ एत्तो उवओगाओ सदेव सोऽमूढलक्खयाए उ । दोसं अपावमाणो करेइ किच्चं अविवरीअं॥१४००॥ मेहाइच्छण्णेसं उभओकालं अहव उवसग्गे । पहाइ भिक्खपंथे जाणइ कालं विणा छायं ॥ १४०१॥ एगत्तभावणं तह गुरुमाइसु दिढिमाइपरिहारा । भावइ छिण्णममत्तो तत्तं हिअयम्मि काऊणं ॥ १४०२॥ एगो आया संजोगिअं तुऽसेसं इमस्स (पिमं तु) पाएणं । । दुक्खणिमित्तं सवं मोत्तुं (एयं) मज्झत्थभावं तु ॥१४०३ ॥ इय भाविअपरमत्थो समसुहदुक्खोऽबहीअरो होइ । तत्तो अ सो कमेणं साहेइ जहिच्छि कजं ॥१४०४॥ एगत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा। सज्जइ वेरग्गगओ फासेइ अणुत्तरं करणं ॥ १४०५ ॥ दारं ॥ इअ एगत्तसमेओ सारीरं माणसं च दुविहंपि । भावइ बलं महप्पा उस्सग्गधिइसरूवं तु ॥ १४०६॥ पायं उस्सग्गेणं तस्स ठि (धि ) ई भावणाबला एसो । संघयणेवि हु जायइ इहि भाराइबलतुल्लो ॥१४०७॥ सह सुहभावेण तहा जंता मुहभावथिजरूवा उ । एत्तो चिअ कायचा धिई णिहाणाइलाभेव ॥ १४०८॥। धिइबलणिबद्धकच्छो कम्मजयहाऍ उज्जओ महमं । सवत्था अविसाई उवसग्गसहो दढं होइ॥१४०९॥दारं ॥ AACACANC+C-44440CANC4600 ॥२९३ ॥ Jain Education Ilhinelibrary.org For Private Personal Use Only ational
SR No.600102
Book TitlePanchvastuka Granth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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