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श्रीपञ्चव. अनुयोगा
स्तवपरिज्ञायां
॥ १७५ ॥
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इअरम कसाई विसिटुलेसा तहेगसारतं । अवगारिणि अणुकंपा वसणे अइनिच्चलं चित्तं ॥ ११९९७ ॥ तं कसिणगुणोवेअं होइ सुवण्णं न सेसयं जुत्ती । णवि णामरूवमित्तेण एवं अगुणो हवइ साहू ॥ ११९८ ॥ जुत्तीसुवण्णयं पुण सुवण्णवण्णं तु जइवि कीरित्ता ( जा हु होइ तं सुवणं सेसेहिँ गुणेहि संतेहिं ॥ ११९९ ॥
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जे इह सुत्ते भणिआ साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । वण्णेणं जच्चसुवण्णयं व संते गुणणिहिम्मि॥ १२००॥ | जो साहू गुणरहिओ भिक्खं हिंडइ ण होइ सो साहू । वपणेणं जुत्तिसुवण्णयं वऽसंते गुणणिहिम्मि ॥ १२०१ ॥ उद्दिटुकडे भुंजइ छक्काय पमद्दणो घरं कुणइ । पञ्चक्खं च जलगए जो पिअइ कहण्णु सो साहू ? ॥ १२०२ ॥ अपणे उ कसाईआ किर एए एत्थ होइ णायवा । एआहिँ परिक्खाहिं साहुपरिक्खेह कायवा ॥ १२०३ ॥ तम्हा जे इह सत्थे साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । अच्चंतसुपरिसुद्धेहिं मोक्खसिद्धित्ति काऊणं ॥१२०४॥ वात् कारणात् 'निर्दिष्टः' कथितः 'पूर्वाचार्यैः' भद्रवाहुप्रभृतिभिः 'भावसाधुरिति परमार्थिकयतिरित्यर्थः, हन्दीति पूर्ववत् 'प्रमाणस्थितार्थ' इति प्रमाणेनैव नान्यथा, तच्च प्रमाणं साधुव्यवस्थापकमिदं भवति -
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भावसाधु
लक्षणं गा.
११९०१२०४
॥ १७५ ॥
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