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सिरिसंतिनाहचरिए
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'भयवं ! जहा पलित्ते घरम्मि जो तस्स णायगो होइ । गिण्हित्तु सारभंड तत्तो निग्गच्छए झत्ति || ९ ||७२५०॥ तह संसारगिहम्मि जम्म-जरा-मरणजलणजलियम्मि । अप्पा चेव य एक्को सारतरं उत्तमं भंड ||१०||७२५१ ।। तं घेत्तूणं सामिय ! तुब्भं हत्थावलंबदाणेण । नीसरिऊणं इच्छामि, संपयं कुणसु मा खेवं ' ॥११॥७२५२ ॥ इ भणिओ संतिजिणो सुर-नर- तिरियाण मज्झयारम्मि । अप्पेइ तस्स वेसं, लोयं सयमेव कुणइ इमो ॥१२॥७२५३॥ तो सव्यविरइसामाइयं तु जिणमग्गओ समुच्चरइ । पणतीसरायसहिओ जाओ समणो समिपावो ||१३|| ७२५४ ॥ तो पुच्छइ जिणनाहं 'भयवं ! अक्खेहि मज्झ किं तत्तं ? ' । भणइ जिणो 'उप्पन्ने इ व, त्ति तत्तं इमं मुणसु' ॥१४॥ ७२५५ ।। तं घेणं तत्तं गते प्राइऊण भावेइ । “उप्पजंती एए नेरइया पढमसमयम्मि || १५ ।। ७२५६ ॥
एवं तिरिया मणुस्स देवा य । उप्पज्जती तम्हा सव्वं उप्पत्तिधम्ममिणं ॥ १६ ॥ ७२५७ ॥ एवं उप्पजंत आयासे बिहु ण चैव माएजा । ता अन्नेण वि क एत्थं केणाऽवि तत्तेण ॥१७॥ ७२५८॥ आगंतूणं पुणरवि पुच्छर 'भयवं ! कहेहि किं तत्तं ?' |
भइ जिणो विहु 'विगमे इ व, त्ति तत्तं वियाणाहि ||१८|| ७२५९॥ भावे "जावतं पहु बुज्झइ ता विगमधम्मयं सव्वं । एवं च सव्वसुन्नं पावइ कालेण जंतेण ॥१९॥७२६०॥
१. बिइया पा० विना ॥। २. कहेह का० ॥
सिरिसंतिजिणिदेहिं तित्थटुवणा
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