________________
सिरिसंतिनाहचरिए
रण्णो सूरपालस्स अक्खाणयं
संतिमई वि हु एवं बोल्लइ 'निसुणह संहिए ! जं मह मणि डोल्लइ । लड्डुय-लावण-सोट्टि-मुरुक्किय, चाउज्जाययचुण्ण भुरुक्किय ॥१७॥६८६८॥ मंडय इड्डरियहु सुविसिटुिय, वेढिमियहु घारियहु वरिट्रिय । बहुविहु एवमाइ अन्न पि हु जाणउं, जइ जेवउं निचं पिहु' ॥१८॥६८६९॥ सीलमई वि हु पुण परिजपइ 'भोयणु सहि ! महु चित्तु न कंपइ । भुजउं जंपि तंपि इह किंपि वि मणह अणिटु वि सहु निच पि वि ॥१९॥६८७०॥ जं पुण जाउए महु-मणि रुचइ, तं तुम्हाहिं वि पुरउ पवुच्चइ । जाणउं जइ हउँ बहाई धोई कुंकुमराई अन्नु पमोई ॥२०॥६८७१॥ परिहियनाणाविहवरवत्थई चीणंसुयमाईणि पसत्थई । तिलगचउद्दसेण सुविभुसिय आहरणइंतुम्हेहिं पसंसिय ॥२१॥६८७२॥ जाणउं जइ हउं ससुरह जेटुहं भत्तारिहिं सहियह उवविटुहं ।
अनु सासुयहिं गुणेहिं समग्गेहिं तुम्हिहिं सहियहिं सुटु सुहग्गहिं ॥२२॥६८७३॥ १. सहि जं का० ।। २. णमुद्दिमु का० । °णसोद्विमु जे० ।। ३. भाउए का० । नाउए पा० ।।